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श्रमण भगवान् महावीर हैं, परन्तु इनसे जो दुविपाक पापकर्म बन्धते हैं उनका फल बड़ा अनिष्ट होता है, जो बाँधनेवालों को भोगना पड़ता है ।
कालोदायी-भगवन् ! जीव कल्याण-फलदायक शुभ कर्मों को करते हैं ?
महावीर-हाँ कालोदायिन् ! जीव शुभ-फलदायक कर्मों को भी करते हैं ।
कालोदायी-जीव शुभ कर्मों को कैसे करते हैं ?
महावीर-कालोदायिन् ! जैसे, कोई मनुष्य औषध-मिश्रित पकवान का भोजन करता है । उस समय यद्यपि वह भोजन उसे अच्छा नहीं लगता तथापि परिणाम में वह बल, रूप आदि की वृद्धि करके हितकारक होता है । इसी प्रकार हिंसा, असत्य, चोरी आदि प्रवृत्तियों और क्रोधादि दुर्गुणों का त्याग जीवों को पहले बहुत दुष्कर मालूम होता है, परन्तु यह पापकर्मों का त्याग अन्त में सुखदायक और कल्याणकारक होता है । इस प्रकार हे कालोदायिन् ! जीवों को पापकर्म करना अच्छा लगता है और शुभ कर्म करना दुष्कर, तथापि परिणाम में एक दुःखकारक होता है और दूसरा सुखकारक' ।
(२) अग्निकाय के आरम्भ के विषय में
कालोदायी-भगवन् ! दो समान पुरुष हैं । दोनों के पास समान ही उपकरण हैं। वे दोनों ही अग्निकाय के आरम्भक हैं परन्तु उनमें से एक अग्नि को जलाता है और दूसरा उसे बुझाता है । इन दोव में अधिक आरम्भक और कर्म-बन्धक कौन ?
महावीर-कालोदायिन् ! इन दो पुरुषों में अग्नि को जलानेवाला अधिक आरम्भक है और वही अधिक कर्म-बन्धक हैं, क्योंकि जो पुरुष अग्नि को जलाता है वह पृथ्वीकाय का, अप्काय का, वायुकाय का, वनस्पतिकाय का और उसकाय का अधिक आरम्भ करता है और अग्निकाय
१. भ० श० ७, उ० १०, प० ३२५-३२६ ।
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