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जमालिप्रवर्तित 'बहुरत' संप्रदाय
२६५ के अन्त में 'घट' अवश्यंभावी होने से ही हमारी स्थूल दृष्टि उस क्रियाकलाप को एक ही क्रिया मान लेती है और उसमें 'घटः क्रियते' का व्यवहार करती है ।
इस व्यवहार का एक और भी कारण है । घट के पहले पिण्डस्थासक-शिवकादि जो जो पर्याय उत्पन्न होते हैं उनसे घट का अविनाभावी संबन्ध है । सदा से यह देखा गया है कि स्थासकशिवकादि पर्यायों के आविर्भाव-तिरोभाव के अन्त में ही 'घट पर्याय' की उत्पत्ति होती है। इसलिए स्थासकादिकाल में ही घटोत्पत्ति का आभास मिल जाने से हम 'घटः क्रियते' यह व्यवहार करते हैं। पर व्यवहार व्यवहारमात्र है, निश्चयनय इसमें विशुद्ध सत्यता का स्वीकार नहीं करता ।
जमालि शुद्ध सत्यांश को स्वीकार करनेवाले इस नय सिद्धान्त को समझ नहीं सका अथवा तो यह सिद्धान्त उसके मन में उतरा ही नहीं, जिससे उसने 'करेमाणे कडे' इस सिद्धान्त को असत्य सिद्ध करने की चेष्टा की ।
बहुत संभव है कि जमालि का यह 'बहुरत' संप्रदाय उसके साथ ही समाप्त हो गया होगा क्योंकि उसके जीवन के अन्तिम समय तक जमालि के सब अनुयायी उसका साथ छोड़ कर चले गये थे और अपने इस मत का माननेवाला वह अकेला ही रह गया था ।
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