Book Title: Shraman Bhagvana Mahavira
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

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Page 395
________________ श्रमण भगवान् महावीर श्वेताम्बर जैन आगमों में जबकि पुस्तकों को उपधि में नहीं गिना और उनके रखने में प्रायश्चित्त विधान किया गया है, तब नाम मात्र भी परिग्रह न रखने के हिमायती दिगम्बर- ग्रन्थकार साधु को पुस्तकोपधि रखने की आज्ञा देते हैं । इससे यह सिद्ध होता है कि साधुओं में पुस्तक रखने का प्रचार होने के बाद यह सम्प्रदाय व्यवस्थित हुआ है । श्वेताम्बर जैन आगम और दिगम्बर ग्रन्थ ३३८ ऊपर कई बार यह उल्लेख किया गया है कि दिगम्बर- सम्प्रदाय भी पहले उन्हीं आगमों को प्रमाण मानता था जिन्हें आजतक श्वेताम्बर जैन मानते आये हैं; परन्तु छठी शताब्दी से जबकि बहुत सी बातों में अन्तर पड़ गया और खासकर स्त्रीमुक्ति, केवलिमुक्ति और सवस्त्रमुक्ति आदि बातों की एकान्त निषेध-प्ररूपणा के बाद उन्होंने इन आगमों को अप्रमाणिक कह कर छोड़ दिया है और नई रचनाओं से अपनी परम्परा को विभूषित किया । वर्तमान आगमों की प्रामाणिकता और मौलिकता के विषय में हम यहाँ कुछ भी नहीं लिखेंगे, क्योंकि हमारे पहले ही जैन आगमों के प्रगाढ़ अभ्यासी डाक्टर हर्मन जेकोबी जैसे मध्यस्थ यूरोपीय स्कालरों ने ही इन आगमों को वास्तविक 'जैनश्रुत' मान लिया है और इन्हीं के आधार से जैन धर्म की प्राचीनता सिद्ध करने में वे सफल हुए है । इस बात को बाबू कामताप्रसाद जैन जैसे दिगम्बर विद्वान् भी स्वीकार करते हैं । वे 'भगवान् महावीर' नामक अपनी पुस्तक की प्रस्तावना में लिखते हैं-" जर्मनी के डा० जेकोबी सदृश विद्वानों ने जैन शास्त्रों को प्राप्त किया और उनका अध्ययन करके उनको सभ्य संसार के समक्ष प्रकट भी किया । ये श्वेताम्बराम्नाय के अङ्ग ग्रन्थ हैं और डा० जेकोबी इन्होंको वास्तविक जैन श्रुतशास्त्र समझते हैं ।" हम यह दावा नहीं करते कि जैनसूत्र जिस रूप में महावीर के मुख से निकले थे उसी रूप में आज भी हैं और न हमारे पूर्वाचार्यों ने ही यह दावा किया है, बल्कि उन्होंने तो किस प्रकार भिन्न भिन्न समयों में अंगसूत्र व्यस्थित किये और लिखे गये यह भी स्पष्ट लिख दिया है । Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org

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