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श्रमण भगवान् महावीर यह कथानक जो वृत्तान्त उपस्थित करता है उसमें कुछ भी सत्यता नहीं है। श्रवण बेल्गुल के एक प्राचीन लेख से इस कथानक की पोल खुल चुकी है कि दक्षिण में जाने वाले 'भद्रबाहु श्रुतकेवली' के नाम से प्रसिद्ध प्रथम भद्रबाहु नहीं किन्तु द्वितीय ज्योतिषी भद्रबाहु थे, जो विक्रम की कई शताब्दियों के बाद के आचार्य थे । इस पर भी यदि दिगंबर विद्वान् डा० हार्नले को आप्त मानने का आग्रह करते हों तो लीजिये हम भी इन्हीं हानले साहब के वचनों का प्रमाण उद्धृत कर दिखाते हैं ।
आजीवक नामक अपने निबन्ध में डा० हार्नले कहते हैं-'जब सब तापस एक मत थे कि शरीर के उपरान्त कुछ भी दूसरी मिलकत तापस को न रखनी चाहिये, तब महावीर ने भिक्षान्न लेने के लिये भिक्षापात्र रखने की छूट रक्खी ' (जै० सा० सं० ३५०)
उसी निबन्ध में डा० हार्नले कहते हैं-'यह सम्भवित जान पड़ता है कि निर्ग्रन्थ समाज में सामान्य नियम लंगोटी पहनने का था और केवल नग्नता का सम्प्रदाय गोशालक की टोली में ही प्रवर्तमान था ।' (जैन साहित्य संशोधक पृ० ३५०)
डा० हार्नले अपने उसी निबन्ध में आगे जाकर कहते हैं-'आजीवक पक्ष के जो मनुष्य अपनी तरफ सक्रिय सहानुभूति रखते थे उनको लेकर गोशालक (महावीर से) दूर हो गया, इस प्रकार जुदा पड़ने वालों का समूह बड़ा था । या तो वह अपने नेता गोशालक की मृत्यु के बाद जीवित रहा था यह मान लेने का कोई कारण नहीं है। जो गोशालक की नीति के विरुद्ध आचार-विचारों के समर्थक नहीं थे वे आजीवक पक्ष के मनुष्य निर्ग्रन्थ संघ में ही रहे, परन्तु सम्पूर्ण नग्नता, भिक्षापात्र का त्याग, अहिंसा विषयक अपूर्ण सावधानी, दण्ड की विशिष्ट संज्ञा और सम्भवतः अन्य बातों सम्बन्धी अपने विचारों के रक्खे रहे । इन भेदों के कारण आजीवक पक्ष और निर्ग्रन्थ समूह के बीच अवश्य ही कुछ संघर्षण तो था ही, पर खास करके वह आजीवकों के प्रति सहानुभूति रखने वाले भद्रबाहु के समय में बाहर आया । ई० स० पहले की तीसरी सदी के पूर्व भाग में वह पराकाष्ठा को प्राप्त हुआ और तेरासि (त्रैराशिक) के नाम से परिचित पक्ष निश्चित रूप से हमेशा के लिये जुदा
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