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श्रमण भगवान् महावीर
शताब्दी के व्यक्ति थे । अतएव इनके समकालीन कुन्दकुन्द भी छठी सदी के ही व्यक्ति हो सकते हैं ।
(२) प्रसिद्ध दिगम्बर जैन विद्वान् पं० नाथूरामजी प्रेमी ने नियमसार की एक गाथा खोज निकली है, जिसमें आचार्य कुन्दकुन्द ने 'लोकविभाग' परमागम का उल्लेख किया है । यह 'लोकविभाग' ग्रंथ संभवतः सर्वनन्दी आचार्य की कृति है, जो कि वि० सं० ५१२ में रची गयी थी । इससे भी कुन्दकुन्द छठी सदी के ग्रन्थकार प्रतीत होते हैं।
उपर्युक्त दो कारणों के अतिरिक्त कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में अनेक उल्लेख ऐसे हैं जो उनको विक्रम की पांचवीं सदी के बाद का ग्रन्थकार सिद्ध करते हैं। उनमें से कुछ उल्लेख ये हैं
(१) समय प्राभृत की गाथा ३५० तथा ३५१ में कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं"लोगों के विचार में देव, नारक, तिर्यंच और मनुष्य प्राणियों को विष्णु बनाता है, तब श्रमणों (जैन साधुओं) के मत में षनिकाय के जीवों का कर्ता आत्मा है ।"
"इस प्रकार लोक और श्रमणों के सिद्धान्त में कोई विशेष नहीं है । लोगों के मत में कर्ता 'विष्णु' है और श्रमणों के मत में 'आत्मा' । कहने की जरूरत नहीं है कि 'विष्णु' को कर्तापुरुष माननेवाले "वैष्णव" संप्रदाय की उत्पत्ति विष्णुस्वामी से ई० स० की तीसरी शताब्दी में हुई थी। उनके सिद्धान्त ने खासा समय बीतने के बाद ही लोक सिद्धान्त का रूप धारण किया होगा, यह निश्चित है । इससे कहना पड़ेगा कि कुन्दकुन्द विक्रम की चौथी सदी के पहले के नहीं हो सकते ।
_(२) कुन्दकुन्द ने 'बोधप्राभृत' की गाथा ६-८ और १० में क्रमश: 'आयतन', 'चैत्यगृह' और 'प्रतिमा' की चर्चा की है । जहाँ तक हमने देखा है, इन बातों की चर्चा
चैत्यवास के साथ सम्बन्ध रखती हुई पायी गई है । अतएव इन चर्चाओं से पाया जाता है कि कुन्दकुन्द का अस्तित्व-समय "चैत्यवास' काल के पहले का नहीं हो सकता ।
(३) 'भावप्राभृत' की १४९वीं गाथा में कुन्दकुन्द ने 'शिव' 'परमेष्ठि' 'सर्वज्ञ' "विष्णु' 'चतुर्मुख' आदि कतिपय पौराणिक देवों के नामों का उल्लेख किया है । इससे भी जाना जाता है कि वे पौराणिक काल में हुए थे, पहले नहीं ।।
(४) 'भावप्राभृत' की १६२वीं गाथा में वे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों का और 'मोक्षप्राभृत' की ४ थी गाथा में तथा 'रयणसार' को १३४ से १४५ पर्यन्त की गाथाओं में उन्होंने 'बाह्य' 'आभ्यन्तर' और 'पर' इन त्रिविध आत्माओं की चर्चा की है, जो विक्रम की पांचवीं सदी के बाद में प्रचलित होनेवाले विषय हैं ।
(५) 'लिंग प्राभृत' की गाथा ९-१०-१६ और २१वीं में साधुओं की आचार
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