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श्रमण भगवान् महावीर
दस सौतेले भाई अपने-अपने दलबल के साथ वैशाली पर चढ़ गये थे दूसरी ओर वैशालीपति चेटकराज और काशि-कोशल के अठारह गणराज अपनीअपनी सेनाएँ सजाकर बचाव के लिये तैयार खड़े थे । बड़े जोरों से संग्राम छिड़ा और प्रतिदिन सैनिक और प्रधान पुरुषों का क्षय होने लगा ।
कोणिक ने अपने विमातृक भाई कालकुमार को अपना सेनापति नियुक्त किया । पहले ही दिन राजा चेटक के बाण से वह मारा गया । दूसरे धावे में कोणिक ने सुकाल नामक अपने भाई को सेनानायक बनाया और वह भी युद्ध में काम आया ।
क्रमशः कोणिक के दसों सौतेले भाई मुख्य सेनापति बन बनकर रण में काम आ चुके थे । फिर भी लड़ाई बड़े जोरों से चल रही थी । इसी समय भगवान् महावीर चम्पा के पूर्णभद्र चैत्य में पधारे । नागरिकजन भगवान् के दर्शन - वन्दनार्थ गये जिनमें राजकुलीन स्त्रियों का समुदाय भी शामिल था ।
राजकुलीन स्त्रियों में राजा श्रेणिक की काली आदि विधवा रानियाँ भी शामिल थीं, जिनके पुत्र वैशाली की लड़ाई में गये हुए थे ।
भगवान् ने सभाजनों के समक्ष धर्मदेशना की जिसे सुनकर सभा विसर्जित हुई ।
तब अवसर पाकर काली आदि राजमाताओं ने भगवान् से पूछाभगवन् ! कालकुमार आदि लड़ाई में गये हुए हैं। क्या वे सकुशल वापस लौटेंगे ?
भगवान् ने उन्हें वस्तुस्थिति से परिचित कराया और उन्हें संसार की असारता और संयोगों की वियोगान्तता का दिग्दर्शन कराया, जिससे प्रतिबोध पाकर काली आदि दस राजमाताओं ने भगवान् के पास श्रमणधर्म की दीक्षा ले श्रमणी - संघ में प्रवेश किया ।
२७. सत्ताईसवाँ वर्ष (वि० पू० ४८६-४८५)
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कुछ समय तक चम्पा में ठहरकर भगवान् वापस मिथिला की तरफ
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