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१०. दसवाँ वर्ष (वि० पू० ५०३ - ५०२)
अनार्यभूमि से निकलकर भगवान् और गोशालक सिद्धार्थपुर से कूर्मग्राम जा रहे थे । मार्ग पर सात फूलोंवाले एक तिल-क्षुप को देखकर गोशालक ने पूछा—' भगवन् ! क्या यह तिल-क्षुप निपजेगा ?"
श्रमण भगवान् महावीर
भगवान् ने उत्तर दिया- 'हाँ, निपजेगा और इन सातों ही फूलों के जीव एक फली में सात तिल होंगे ।' यह सुनकर गोशालक ने उस तिल स्तम्ब को वहाँ से उखाड़ कर फेंक दिया ।
कूर्मग्राम के बाहर वैश्यायन नामक एक तापस जिसने प्राणायामा दीक्षा अंगीकार की हुई थी, धूप में औंधे मस्तक लटकता हुआ तप कर रहा था । धूप से आकुल होकर उसकी जटाओं में से जूँएँ गिर रही थीं और वैश्यायन उन्हें पकड़ पकड़ अपनी जटाओं में डाल रहा था । गोशालक यह दृश्य देखकर बोला—'भगवन् ! यह जूँओं को स्थान देनेवाला कोई मुनि है या पिशाच ?'
गोशालक ने बार-बार आक्षेप किया । आक्षेप को सुनकर वैश्यायन ने क्रुद्ध होकर अपनी तेजोलेश्या उस पर छोड़ी । परंतु उसी क्षण भगवान् ने शीतलेश्या छोड़कर गोशालक को बचा लिया । उस समय वैश्यायन बोला- 'बीत गई भगवन् ! बात बीत गई !'
गोशालक वैश्यायन के संकेत को समझ नहीं सका, वह बोला'भगवन् ! यह यूका - शय्यात्तर क्या कह रहा है ?'
भगवान् ने स्पष्टीकरण करते हुए कहा— ' इसने तेरे पर अपनी तेजशक्ति का प्रयोग किया था पर मेरी शीतलेश्या के प्रयोग से तू बच गया । यह देख कर तापस कह रहा है— यदि मैं पहले जानता कि यह आपका शिष्य है तो मैं ऐसा कभी न करता पर अनजानपन में यह हो गया ।'
तेजोलेश्या की बात सुनकर गोशालक भयभीत हो गया और बोलाभगवन् ! यह तेजोलेश्या कैसे प्रकट होती है ? तेजोलेश्या की प्राप्ति का उपाय समझाते हुए भगवान् ने कहा- जो मनुष्य छः महीनों तक निरन्तर छट्ट तप
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