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तीर्थंकर-जीवन
९७ आर्द्र-मैं किसी की निन्दा नहीं करता किंतु अपने दर्शन (मत) का वर्णन करता हूँ । सब दर्शन वाले अपने मतों का प्रतिपादन करते हैं और प्रसंग आने पर एक दूसरे की निन्दा भी करते हैं । मैं तो केवल अपने मतका प्रतिपादन और पाषण्ड का खंडन करता हूँ। जो सत्य धर्म है उसका खंडन कभी नहीं होता और जो पाषण्ड है उसका खण्डन करना बुरा नहीं । फिर भी मैं किसी को लक्ष्य करके नहीं कह रहा हूँ ।
गोशालक-आर्द्रक ! तुम्हारे धर्माचार्य की भीरुताविषयक एक दूसरी बात कहता हूँ, इसे भी सुन । पहले ये मुसाफरखानों और उद्यानघरों में ठहरते थे पर अब वैसा नहीं करते । ये जानते हैं कि उन स्थानों में अनेक बुद्धिमान् चतुर भिक्षु एकत्र होते हैं, कहीं ऐसा न हो कि कोई शिक्षित भिक्षु कुछ प्रश्न पूछ बैठे और उसका उत्तर न दिया जा सके । इस भयसे इन्होंने उक्त स्थानों में आना आजकाल छोड़ दिया है ।
आर्द्र--मेरे धर्माचार्य के प्रभावसे तुम बिल्कुल अनभिज्ञ मालूम होते हो । महावीर सचमुच महावीर है । इनमें न बाल चापल्य है और न काम चापल्य । ये सम्पूर्ण और स्वतंत्र पुरुष हैं । जहाँ राजाज्ञा की भी परवा नहीं वहाँ भिक्षुओं से डरने की बात करना केवल हास्यजनक है । मंखलि श्रमण ! महावीर आज मुसाफर खानों में रहनेवाला साधारण भिक्षु नहीं, वे जगदुद्धारक धर्म तीर्थंकर हैं । एकान्तवास में रहकर इन्होंने पहले बहुत तपस्याएँ की हैं
और घोर तपस्याओं द्वारा पूर्ण ज्ञान को प्राप्त करके अब ये लोक-कल्याण की भावना से ऐसे स्थानों में विचरते हैं जहाँ परोपकार का होना सम्भव हो । इसमें किसी के भय अथवा आग्रह को कुछ स्थान नहीं । कहाँ जाना और कहाँ नहीं, किससे बोलना और किससे नहीं और किससे प्रश्नोत्तर करना और किससे नहीं ये सब बातें इनकी इच्छा पर ही निर्भर रहती हैं । मुसाफिरखानों में ये नहीं जाते, इसका भी कारण है। वहाँ बहुधा अनार्य स्वभाव के मताग्रही लोग मिलते हैं, जिनमें तत्त्वजिज्ञासा का नितान्त अभाव और कदाग्रह तथा उद्दण्डता आदि की प्रचुरता होती है ।
गोशालक-तब तो श्रमण ज्ञातपुत्र, अपने स्वार्थ के लिये ही प्रवृत्ति करनेवाले लाभार्थी वणिक् के समान हुए न ?
श्रमण- ७
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