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श्रमण भगवान् महावीर (१०) सिंहासन पर बैठकर आप देव और मनुष्यों की सभा में धर्मप्रज्ञापना करेंगे । इस प्रकार आपके ९ स्वप्नों का फल तो मैंने समझ लिया पर चौथे स्वप्न में आपने जो सुगन्धित पुष्पमाला-युग्म देखा उसका फल मेरी समझ में नहीं आया ।
चतुर्थ स्वप्न का फल बताते हुए भगवान् ने कहा-'उत्पल ! मेरे चतुर्थ स्वप्नदर्शन का फल यह होगा कि सर्वविरति और देशविरतिरूप द्विविध धर्म का मैं उपदेश करूँगा ।'
__यह प्रथम वर्षा-चातुर्मास्य भगवान् ने १५-१५ उपवास की आठ तपस्याओं से पूर्ण किया । २. दूसरा वर्ष (वि० पू० ५११-५१०)
__मार्गशीर्ष कृष्णा प्रतिपदा को भगवान् ने अस्थिकग्राम से वाचाला की तरफ विहार किया । बीच में मोराक सन्निवेश के उद्यान में कुछ समय तक ठहरे पर वहाँ पर इनके तप, ध्यान और ज्ञान की प्रसिद्धि इतनी अधिक हो गई कि दिन भर वहाँ लोगों का मेला सा रहने लगा । ध्यानपरायण महावीर के लिये यह लोगों का जमघट असह्य हो गया । दूसरी तरफ वहाँ के रहनेवाले 'अच्छदंक' नाम के पाषण्ड लोग भी, जो ज्योतिष निमित्त आदि से अपना निर्वाह चला रहे थे, महावीर की इस ख्याति और प्रशंसा से जलते थे और महावीर को अन्यत्र जाने की प्रार्थना करते थे । इस परिस्थिति में वहाँ अधिक रहना अनुचित समझ कर भगवान् आगे वाचाला की तरफ विहार कर गये ।
वाचाला नामक दो संनिवेश थे--एक उत्तर वाचाला और दूसरा दक्षिण वाचाला । दोनों संनिवेशों के बीच में सुवर्णवालुका तथा रूप्यवालुका नाम की दो नदियाँ बहती थीं । भगवान् महावीर दक्षिण वाचाला होकर उत्तर वाचाल को जा रहे थे तब उनका दीक्षाकालीन आधा देवदूष्य भी सुवर्णवालुका के तट पर गिर गया । भगवान् उसे वहीं छोड़कर आगे चले गये और बाद में कभी वस्त्र ग्रहण नहीं किया ।
उत्तर वाचाला के दो मार्ग थे-एक कनकखल आश्रमपद के भीतर
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