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वरण का प्रभाव मानव जीवन पर पड़े बिना नहीं रहता । सांसारिक वासनाओं से दूर रहने वाले, प्रकृति की गोद में क्रीड़ा करने वाले; त्यागी-संयमी-गुरुजन की सेवा में लगे रहने वाले; विचार, वाणी और आचरण एक ही प्रकार के रखने वाले गुरुओं का प्रतिदिन सदुपदेश श्रवण करने वाले उनके पवित्र नीवन से प्रेरणा प्राप्त करने वाले और वर्षों तक-यौवन की घोर-घाटी से पार हो जाने तक--ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए एक ही गुरु के आदर्श को सामने रखकर, विद्याध्ययन के साथ अपना चरित्र निर्माण करने वाले, उन भारतीय बालकों युवकों और वीरों का कैसा चरित्र-निर्माण हुआ करता होगा, यह दिखलाने की आवश्यकता है क्या ? ऐसे आश्रमों में शास्त्र-विद्या और शस्त्र-विद्या दोनों सिखलाई जाती थी। शास्त्र-विद्या आत्मिकज्ञान के लिए होती थी, और शस्त्र-विद्या रक्षण के लिए होती थी । किसी को हानि पहुँचाने के लिए नहीं । कुटुम्ब, देश और आत्मरक्षा का जब-जब प्रसंग आ पड़ता था, तब वे शस्त्र-विद्या का प्रयोग भी करते थे। एक ही गुरु का आदर्श सामने रहने से चरित्र-निर्माण में विभिन्नता भी नहीं होती थी।
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