Book Title: Shatrunjaya Mahatmya
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
View full book text
________________
श@जय माहात्म्य. देवगिरि, अंबिकागिरि, उमागिरि,शंजुगिरि विगेरे त्यांना सर्व शिखरोपर गुरुसहित तेमणे प्रजुनी पूजा करी, केम के ते गुरुनी आज्ञाने आधिन हता. पली पाबा वलतां आबु, वैजार विगेरे तीर्थोमां प्रजुने तथा साधुऊने नमीने चक्री अयोध्यामां आव्या. ____ एटलामा त्यां पोताना चरणोथी पृथ्वीने पवित्र करता थका श्री श्रजितनाथ प्रनु पण जाणे ते चक्रीना पुण्यश्रीज खेंचाश्ने होय नहीं, तेम त्यां श्राव्या. प्रजुना श्रागमननी वधामणी आपनारने घणुं धन दे. श्ने, घणा कालथी उत्कंठित थएला चक्री प्रजुने वांदवा माटे गया. पडी त्यां नक्तिथी रोमांचित थश्ने, तथा प्रजुने नमीने चक्री प्रजुना मुखरुपी चंथी निकलता वचनरुपी अमृतने पीवा माटे तेमनी पासे बेग. त्यारे प्रनु पण तेमने बोध श्रापवा माटे क्रोधरुपी सर्पना फेरने (नाश करवाने ) गरुड सरखी तथा धर्मकार्यना प्रजाववाली वाणी कहेवा लाग्या के, था जवरुपी समुरुमां मोती, परवाला तथा रत्नोनी पेठे राज्य, पुत्र, स्त्री, बंधु, नगर, मेहेल, धन, तथा देवादिकनी शद्धि तो सुलज डे, पण चिंतामणि रत्ननी पेठे सर्व अर्थाने साधनारुं चारित्र पुर्खन डे. एक दिवस चारित्र पालवाथी पण मनुष्य निश्चयें करीने कर्मोना समूहने वीण करीने मोक्षमां जाय जे. एवी रीते चारित्रना मनोहर प्रनावने सांजलीने वैराग्ययुक्त थएला सगर चक्री नावथी प्रजुने नमता थका पोताने चारित्र श्रापवा माटे प्रार्थना करवा लाग्या. पळी चक्रीए पोता. नी पाटे गुणवान, तथा राज्यने योग्य एवा जगीरथने स्थापीने, प्रजुपा. सेश्री इंजे करेला महोत्सवपूर्वक चारित्र लीधुं. त्यारे प्रजुए तेमनी प्रशंसा करी के, हे चक्री ! तमो धन्य तथा पुण्यशाली बो, तथा तमारी मा. ताने अने कुलने पण धन्य , केम के तमोए आ संसाररुपी समुअमां फुःखदायक जलचरो सरखा कर्मोने नेदनालं, तथा पुष्कर एवं दांति श्रादिक दशविध गुणोवावं चारित्र लीधुं . पडी प्रजुनी नक्तिमां तत्पर रहीने ते सगर महामुनि पण विदार करवा लाग्या,
श्री अजिनाथ प्रजुना सिंहसेन श्रादिक जिननी पेठे सत्यवादी पंचाणु गणधरो हता. वला तेमने एक लाख साधु तथा त्रण लाख नेत्रणसो साधवी हती; तेम बे लाखने एक हजार उत्तम श्रावको हता; तथा
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340