Book Title: Shatrunjaya Mahatmya
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
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अष्टमःसर्गः
शन् डे? एटलामां जाणेल ने अवधिज्ञानथी जिनवाणी जेणे एवा इंजेज च. क्रीने कयुं के, हे चक्री ! था कार्यथी तमो श्रटको ? केम के, सूर्यविना जेम दिवस, पुत्र विना जेम कुल, जीवविना जेम शरीर, विद्याविना जेम मनुष्य, दीपक विना जेम घर, आंखो विना जेम मुख, बायाविना जेम वृक्ष, दयाविना जेम धर्म, धर्म विना जेम जीव, तथा जल विना जेम जगत, तेम था तीर्थ विना सर्व सृष्टि निष्फल . वली श्रष्टापद तीर्थ निरुक थयाथी आ शत्रुजय तीर्थज लोकोने तारनार बे, तेथी था तीर्थनो रोध थवाथी पृथ्वीपर बीजु तारानारूं तीर्थ हुँ को जोतो नथी. वली ज्यारे तीर्थंकर महाराज, धर्म के जिनागम एमानुं कंश पण नथी होतुं, त्यारे आ शत्रुजय पर्वतज लोकोने वांडित श्रापनारो ( तारनारो) बे. एवी रीतना इंजना वचनथी चक्रीए लवणाधिपने कह्यु के, हवे एक एंधाणी दाखल तुं अहीं समुउने रहेवा दे ? एम कही तेने विसर्जन करी चक्रीए प्रीतिथी इंसने पुष्टोथी तीर्थनी रहामाटे प्रश्न कयों; त्यारे इंजे कयु के हे चक्री! तमो था रत्ननी अने मणिनी मूर्ति ने ज्यांदेवो पण न जश्शके एवी था सुवर्णगुफामां मुको ? तथा सर्व तीर्थंकरोनी सुवर्णनी मूर्ति करावो? अने प्रासादो पण सुवर्ण अने रुपानाज बनावो ? पनी प्रजुथी पश्चिम दिशामा रहेली रसकुंपिकावाली, तथा कल्पवृदोथी जरेली सु. वर्णगुफा इंजे चक्रीने बतावी; तेथी त्यां ज तेमणे, प्रजुनी ते मूर्ति ने राखी, अने हमेशां तेमनी पूजा माटे यदोने साझा करी. पडी चक्रीए इंनी साथे रहीने त्या रुपाना तथा पाषाणोना प्रासादो बंधाव्यां, अने तेमां सुवर्णनी मूर्ति पधरावी. पड़ी तेमणे सुजमशिखरपर बीजा तीर्थंकर श्रीश्रजितनाथ प्रजुनुं नावथी रुपानुं मंदिर बंधाव्यु. त्यां ज्ञानी घणधरो, श्रावको, तथा देवोए पूजापूर्वक प्रतिष्ठामहोत्सव को. एवी रीते शध्रुजयनो उकार करीने चक्री देवो तथा मनुष्यो सहित रेवताचल प्रते चाल्या. त्यां चंडप्रजासमां श्री चंदप्रन जिनेश्वरने नमस्कार करीने विमानोमारफते ते रेवताचलपर गया. त्यां श्रादरपूर्वक तीर्थने प्रदक्षिणा देश्ने, तथा गजेंअपदकुंडमांथी पाणी लेश्ने जिनालयमां गया. त्यां पण पूर्वनी परेंज तेमणे प्रजुनि पूजा, स्तुति विगेरे कर्यु, तथा पली नावथी सुप्रात्रोप्रते उचित दान थाप्यु. पड़ी श्रीद, सिकगिरि, विद्याधर गिरि,
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