Book Title: Shatkhandagama Pustak 16
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 14
________________ विषय- परिचय कर्म प्रकृतिप्राभृतके कृति आदि २४ अनुयोगद्वारों में से प्रथम ९० अनुयोगद्वारों का संक्षिप्त परिचय यथास्थान कराया जा चुका है। यहाँ मोक्ष अनुयोगद्वारसे लेकर शेष १४ अनुयोगद्वारोंका परिचय कराया जाता है । ११ मोक्ष- मोक्ष अनुयोगद्वारका विचार नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार निक्षेपों द्वारा करने की प्रतिज्ञा करके मात्र कर्मद्रव्यमोक्षका विशेष विचार प्रकृतमें किया गया है और शेष निक्षेपोंके व्याख्यानको सुगम बतलाकर छोड़ दिया गया है । कर्मप्रकृतियाँ मूल और उत्तरके भेद से दो प्रकारकी हैं, इसलिए कर्मद्रव्यमोक्षके दो भेद हो जाते हैं-मूलप्रकृतिकर्मद्रव्यमोक्ष और उत्तरप्रकृतिकर्मद्रव्यमोक्ष । ये दोनों भी देशमोक्ष और सर्वमोक्ष के भेदसे दो दो प्रकारके हैं । किसी मूल या उत्तर प्रकृतिके प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंकी अपेक्षा एकदेशका अभाव होना देशमोक्ष है और किसी मूल या उत्तर प्रकृतिका प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंकी अपेक्षा सर्वथा अभाव होना सर्वमोक्ष है, इसलिए देशमोक्ष और सर्वमोक्ष ये दोनों ही प्रकृतिमोक्ष, स्थितिमोक्ष, अनुभागमोक्ष और प्रदेशमोक्ष इन चार भागोंमें विभक्त हो जाते हैं | खुलासा इस प्रकार है- विवक्षित प्रकृतिको निर्जरा होना या उसका अन्य प्रकृतिरूप से संक्रमित होना प्रकृतिमोक्ष कहलाता है । प्रदेश मोक्षका बिचार प्रकृतिमोक्ष के ही समान है। किसी भी प्रकृतिकी विवक्षित स्थितिका अभाव चार प्रकारसे होता है - अपकर्षण द्वारा, उत्कर्षण द्वारा, संक्रमणद्वारा और अधः स्थितिगलन द्वारा ; इसलिए इन चारोंमेंसे किसी एकके आश्रयसे विवक्षित स्थितिका अभाव होता स्थितिमोक्ष कहलाता है । स्थितिके जधन्यादि सब विकल्पों में स्थितिमोक्षका विचार इसी प्रकार कर लेना चाहिए । अनुभागमोक्ष भी स्थितिमोक्षके समान चार प्रकारसे होता है, इसलिए अनुभाग के भी उत्कृष्टादि सब भेदों में उक्त प्रकारसे अनुभागमोक्षको घटित करके बतलाया गया है | यहाँ यह स्पष्ड कर देना आवश्यक प्रतीत होता है कि कर्मद्रव्यमोक्ष अनुयोगद्वार में सम्यग्दर्शन आदि गुणोंके द्वारा जीवके बन्धसे मुक्त होने मात्रका विचार न करके प्रति समय बन्धको प्राप्त होनेवाले कर्मोकी प्रकृति आदिका अभाव किस किस प्रकारसे होता रहता है इसका भी विचार किया गया है। जीवका कर्मोंसे छूटने का क्रम एक प्रकारका ही है । यदि सम्यग्दर्शनादि गुणोंके द्वारा कर्मसे छुटकारा मिलता है तो नवीन बन्ध न होने से वह सर्वथा मुक्तिका कारण होता है इतना मात्र यहाँ विशेष है । इसी अभिप्रायको ध्यान में रखकर नोआगमद्रव्य मोक्ष के मोक्ष, मोक्षकारण और मुक्त ये तीन भेद किये गये हैं । जीव और कर्मोंका वियुक्त हो जाना मोक्ष है । सम्यग्दर्शन आदि मोक्षके कारण हैं और समस्त कर्मोंसे रहित अनन्त गुण युक्त शुद्ध बुद्ध आत्मा मुक्त है । मोक्ष अनुयोगद्वार में इसका भी विस्तार के साथ विचार किया गया है । १२ संक्रम- संक्रमका छह प्रकारका निक्षेप करके उसके आश्रयसे इस अनुयोगद्वार में विचार किया गया है । क्षेत्र संक्रमका निर्देश करते हुए बतलाया है कि एक क्षेत्रका क्षेत्रान्तरको प्राप्त होना क्षेत्र संक्रम है । इस पर यह शंका की गई कि क्षेत्र निष्क्रिय होता है, इसलिए उसका अन्य क्षेत्र में गमन कैसे हो सकता है । इसका समाधान वीरसेनस्वामीने इस प्रकार किया है कि जीव और पुद्गल सक्रिय पदार्थ हैं, इसलिए आधेयमें आधारका उपचार करनेसे क्षेत्र संक्रम बन जाता | कालसंक्रमका निर्देश करते हुए बतलाया है कि एक काल गत होकर नवीन कालका For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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