Book Title: Shatkhandagama Pustak 16
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 12
________________ सम्पादकीय मुझे आज बडी प्रसन्नता है कि जिस षखंडागम और उसकी टीका धवलाका सम्पादन प्रकाशन कार्य आजसे बीस वर्ष पूर्व सन् १९३८ में प्रारंभ हुआ था, वह आज प्रस्तुत भागके साथ संपूर्णताको प्राप्त हो रहा है । किन्तु ज्ञानकी दृष्टिसे यह कार्य केवल हमारे कर्तव्यकी प्रथम सीढी मात्र है। इस प्रकाशनके द्वारा इस महान शास्त्रीय रचनाका मूल पाठ, उसका मूलानुगामी अनुवाद, यत्र तत्र विशेष स्पष्टीकरण व तुलनात्मक टिप्पण तथा कुछ ऐतिहासिक विवेचन व पारिभाषिक शब्दोंकी सूचियाँ मात्र प्रस्तुत की जा सकी हैं । हमारे विचारके अनुसार अभी इसके सम्बन्धमें विशेष रूपसे निम्न कार्य अवशिष्ट है: १-इसके मूल पाठका एक बार सावधानीसे मूडबिद्रीकी तीन उपलभ्य ताडपत्रीय प्रतियोंसे मिलान व पाठभेदोंका अंकन । इस कार्यके लिये उक्त प्रतियोंके फोटोका भी उपयोग किया जा सकता है। २-इसके विषयका समस्त जैन कर्मसिद्धान्तसम्बन्धी दिगम्बर और श्वेताम्बर तथा वैदिक व बौद्ध साहित्यके साथ तुलनात्मक अध्ययन व पाश्चात्यदर्शन प्रणालीसे उसका विवेचन । ३-सूत्रों और टीकाका प्राकृत भाषासम्बन्धी अध्ययन । मुझे आशा है कि वर्तमान युगकी बढ़ती हुई ज्ञानपिपासा तथा विशेष अध्ययनकी ओर अभिरुचि व प्रोत्साहन को देखते हए उक्त प्रवत्तियोंको हाथ लगाने में विलंब न हो यद्यपि प्रत्येक भागके साथ भूमिकामें ग्रन्थसम्बन्धी ऐतिहासिक विवरण व विषय परिचय दिया गया है एवं परिशिष्टोंमें शब्द सूचियाँ, तथापि मेरा विचार था कि प्रस्तुत अन्तिम भागमें उक्त समस्त सामग्रीका पुनरावलोकन सहित संकलन दे दिया जाय । तदनुसार पारिभाषिक शब्दसूची संकलित करके इस भागके साथ प्रस्तुत की जा रही है। प्रस्तावनात्मक सामग्रीका भी संकलन कार्य चालू किया गया था। किन्तु इसी बीच मेरा स्वास्थ्य गिरने लगा और मुझे डाक्टरों का आदेश मिला कि कुछ कालके लिय कठोर मानसिक व शारीरिक परिश्रम त्यागकर विश्राम किया जाय, नहीं तो प्रकृति और अधिक बिगडनेका भय है। इस कारण उस सुविस्तृत भूमिकाका विचार छोड़कर एवं इस प्रकाशनमें अधिक विलंब उचित न समझकर इस भागको प्रकाशित किया जा रहा है । यदि विधि अनुकूल रहा तो उक्त कार्य भविष्यमें कभी पूर्ण करने का प्रयत्न किया जायगा । आवश्यक ऐतिहासिक व विषय-परिचयसंबंधी जानकारी भिन्न भिन्न भागोंमें संगृहीत है ही। __ इस समय स्वभावत: मेरी स्मृति इस संपादन प्रकाशनके गत बीस वर्षके इतिहास पर जा रही है । सफल और धन्य है वह श्रीमंत सेठ सिताबराय लक्ष्मीचन्द्र जी, भेलसा, की संपत्ति जिसके थोडेसे दानसे यह महान् शास्त्रोद्धारका कार्य हो सका । वे गजरथ महोत्सव कराने जा रहे थे कि मेरे परम सुहृत् बैरिस्टर जमनाप्रसाद जैनने इटारसी परिषद्के अधिवेशनके समय उनको सद्बुद्धिको यह मोड़ दिया । गजरथ आज भी चलाये जा रहे हैं और उनमें अपरिमित धन व्यय किया जा रहा है। पाठक विचार कर देखें कि आज दानकी प्रवृत्ति किस दिशामें सार्थक है । पश्चात् भेलसानिवासी श्रीमान् स्वर्गीय सेठ राजमलजी व श्रीमान् तखतमल जी ( वर्तमान मध्य प्रदेशी मंत्रि-मण्डलके सदस्य ) ने सेठ लक्ष्मीचन्द जी की उस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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