Book Title: Shatkhandagama Pustak 02
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 8
________________ (३) पं. फूलचंद्रजी शास्त्री और पं. हीरालाल जी शास्त्री स्थायी रूपसे सम्पादन कार्यमें हमारे साथ संलग्न रहे, तथा पं. देवकीनन्दनजी शास्त्री और डा. आदिनाथजी उपाध्यायसे हमें संशोधनमें यथावसर वांछित साहाय्य मिलता रहा। धवलाकी जो प्रशस्तियां इस विभागके साथ प्रकाशित हो रही हैं, उनका सहारनपुरकी प्रतिसे अक्षरशः मिलान वीरसेवामंदिरके अधिष्ठाता पं. जुगलकिशोरजी ने करके भेजनेकी कृपा की। उन्हीं प्रशस्तियों के कनाडी पाठोंके संशोधनका अत्यन्त कठिन कार्य डा. उपाध्येके सहयोगी, राजाराम कालेज, कोल्हापुरमें कनाडीके प्रोफेसर श्रीयुत कुन्दनगारजी द्वारा किया गया है। वीरसेवामंदिरके पं. परमानन्दजी शास्त्रीने प्रस्तुत विभागमें आई हुई अवतरणगाथाओंके प्राकृत पंचसंग्रहमें होने न होने की हमें सूचना दी। बीनाके पं. वंशीधरजी व्याकरणाचार्यने पृ. ४४१-४४३ पर आये हुए व्याकरण संबंधी कठिन प्रकरणपर अपनी सम्मति विस्तारसे हमें लिख भेजनेकी कृपा की। पं. महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यने इस भागके प्रथम फार्मका ग्रूफ देखकर मुद्रण-संबंधी अनेक सूचनाएं देनेकी कृपा की। इस सब सहायताके लिये हम इन विद्वानोंके बहुत ही अनुगृहीत हैं । और भी अनेक विद्वानोंने अपनी बहुमूल्य सम्मतियां हमें या तो व्यक्तिगत पत्र द्वारा या समालोचनाके रूपमें पत्रोंमें प्रकाशित कराकर देनेकी कृपा की। उन सबसे भी हमने लाभ उठानेका प्रयत्न किया है । अतएव वे सब हमारे धन्यवादके पात्र हैं। उन सम्मतियों आदि परसे जो संशोधन या सूचनाएं प्रथम खंडके विषयमें हमें आवश्यक प्रतीत हुईं, उनका भी समावेश इस विभागके शुद्धिपत्रमें किया जाता है। पाठक उससे प्रथम खडमें उचित सुधार कर लें। हमारे अनेक प्रेमी पाठकोंने कुछ सूचनाएं ऐसी भी भेजी थी जिनका, खेद है, हम पालन करनेमें असमर्थ रहे । इनमें एक सूचना तो प्राकृत अंशोंका या उनके कठिन स्थलोंका संस्कृत रूपान्तर देते जानेके सम्बंध थी। इसको स्वीकार न कर सकने का कारण हम प्रथम जिल्दके प्राक्कथनमें ही दे चुके है और हमारा वह मत अब भी कायम है । दूसरी सूचना हमारे वयोवृद्ध पाठकोंकी ओर से यह थी कि भाषान्तरका टाइप छोटा पड़ता है, उसे और भी बड़ा कर दिया जाय तो उन्हें पढने में सुविधा होगी। हम बहुत चाहते थे कि अपने वृद्ध पाठकोंकी इस मूर्तिमान् कठिनाई को दूर करें। किन्तु पाठक देखेंगे कि मूलके टाइपसे अनुवादका टाइप बहुत कुछ छोटा होते हुए भी उसमें मूलसे कहीं अधिक स्थान लगता है । अब हम यदि उसे और भी बड़े टाइपमें लें तो हमारी निश्चित की हुई खंड-व्यवस्था और व्हाल्यूममें बड़ी गड़बड़ी उत्पन्न होती है । अतएव विवश होकर हमें अपनी पूर्व पद्धति ही कायम रखना पड़ी। आशा है हमारे वृद्ध पाठक प्रकाशन संबंधी इस कठिनाईको समझकर हमें क्षमा करेंगे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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