Book Title: Shatkhandagama Pustak 02 Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati View full book textPage 7
________________ प्राक कथन श्रीधवलसिद्धान्त प्रथम विभागके प्रकाशित होनेसे हमें जो आशा थी, उसकी सोलहों आने पूर्ति हुई । हमें यह प्रकट करते हुए अत्यन्त हर्ष और संतोष है कि मूडबिद्री मटको भेट की हुई शास्त्राकार और पुस्तकाकार प्रतियोंके वहां पहुंचनेपर उन्हें विमानमें विराजमान करके जुलूस निकाला गया, श्रुतपूजन किया गया और सभा की गई, जिसमें वहांके प्रमुख सज्जनों और विद्वानोंद्वारा हमारी संशोधन, सम्पादन और प्रकाशन व्यवस्थाकी बहुत प्रशंसा की गई और यह मत प्रगट किया गया कि आगे इस सम्पादन कार्यमें वहांकी मूल प्रतिसे मिलानकी सुविधा दी जाना चाहिये, नहीं तो ज्ञानावरणीय कर्मका बंध होगा । यह सभा मूडबिद्री मठके भट्टारकजी श्री चारुकीर्ति पंडिताचार्यवर्यके ही सभापतित्वमें हुई थी। उक्त समारंभके पश्चात् स्वयं भट्टारकजीने अपना अभिप्राय हमें सूचित किया और प्रति मिलानकी व्यवस्थादिके लिये हमें वहां आनेके लिये आमंत्रित किया। इसी बीच गोम्मटस्वामीके महामस्तकाभिषेकका सुअवसर आ उपस्थित हुआ। यद्यपि छुट्टियां न होनेके कारण हम उक्त महोत्सवमें सम्मिलित होनेके लिये नहीं जा सके, किंतु हमारे कार्यमें अभिरुचि रखने और सहायता पहुंचानेवाले अनेक श्रीमान् और धीमान् वहां पहुंचे और उनमेंसे कुछने मूडविद्री जाकर ग्रंथराज महाधवलकी भी प्रतिलिपि कराकर प्रकाशित कराने के लिये भट्टारकजी व पंचोंकी अनुमति प्राप्त कर ली। समयोचित उदारता और सद्भावनाके लिये मूडबिद्री मठका अधिकारी वर्ग अभिनन्दनीय है और उस दिशामें प्रयत्न करनेवाले सज्जन भी धन्यवादके पात्र हैं। अब हम उस सम्बंधमें पत्र-व्यवहार कर रहे हैं, और यदि सब सुविधाएं मिल सकीं, जिनके लिये हम प्रयत्नशील हैं, तो हम शीघ्र ही मूडबिद्रीकी समस्त धवलादि श्रुतोंकी प्रतियोंकी ( फोटोस्टाट मशीन या माइक्रो फिल्मिंग मशीन द्वारा ) प्रतिलिपियां कराकर ग्रंथराजका चिरस्थायी उद्धार करनेमें सफलीभूत हो सकेंगे। इस महान कार्यके लिये समस्त धर्मिष्ठ और साहित्यप्रेमी सज्जनोंकी सहानुभूति और क्रियात्मक सहायताकी आवश्यकता है, जिसके लिये हम समाजभर का आह्वान करते हैं प्रथम विभागका प्रकाशनोत्सव ४ नवम्बर सन् १९३९ को किया गया था। तबसे आज ठीक आठ मास हुए हैं । इतने अल्पकालमें द्वितीय विभागका संशोधन सम्पादन होकर मुद्रण भी पूरा हो रहा है, यद्यपि कार्यमें कठिनाइयां अनेक उपस्थित होती रहती हैं। इस सफलतामें समाजकी सद्भावना और दैवी प्रेरणा बहुत कुछ कार्यकारी दिखाई देती है । यदि समय अनुकूल रहा तो आगे प्रायः वर्षमें दो भागोंका प्रकाशन करानेका प्रयत्न किया जायगा। इस विभागके सम्पादनमें भी पूर्वोक्त सहयोग पूर्ववत् ही चलता रहा है, अर्थात् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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