Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 7
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 95
________________ का टीका एवं हिन्दी विवेवा ] [प्रासाद आदि में एकस्य प्रतीति को अनुपपति ] इस संवर्भ में यह बात भी ध्यान देने योग्म है कि पवि मनेक में एकत्व का मभ्युपगम न किया जायगा तो प्रासाप-महागा आदि में भी एकरण की प्रसीति कैसे हो सकेगी? क्योंकि अतिरिक्त अवयमोवाधी मी प्रासावादिको एक द्रव्य महीं मानते क्योंकि प्राप्ताय तो लोहा-लकड़ी इंट आदि विजातीय ब्रम्पों से निमित होता है और विजातीय प्राय किसी भतिरिक्त प्रभ्य के प्रारमक महीं होते। मवि यह कहा जाय कि-"प्रासाब सो लोह-लकड़ी-घंटा प्रावि विभिन्न व्यों का समूह रूप है प्रत एव उसमें समूहात एकत्व तोताहै"-तो ठीक नहीं है, क्योंकि प्रासादावि में ऐसा मानने पर पटादि में भी समूहकृत एकत्व को क्यों नहीं मामा जा सकेगा? क्योंकि पट और प्रासावादि में विलक्षण एकत्व का अनुभव नहीं होता । यदि यह कहा जाय कि-'ऐसा मामले पर पामराशि आधि में प्रतीत होनेवाला एकरव पट आदि के एकत्व से विलक्षण न हो सकेगा'-तो यह प्रो टोक नहीं है क्योंकि निश्चयभय से समी एकश्व परमाणुप्तमूहातही होता है, अतः भाम्बराशियत एकरव और पटापिंगत एकाप में कुछ लक्षण्य नहीं है। यदि यह कहा जाय-'पटावि तो एक द्रस्य का परिणामरूप है और मान्यराशि किसी अन्य का परिणामरूप नहीं है, अत: पटावि गत एकत्व वध्यपरिणामकृत होने से, पवहारमय की अपेक्षा, धान्यराशिगत समूहकृत एकस्य से विलक्षण है-तो मह कहना कुछ ठीक हो सकता है और इससे समूहात एकत्व से अतिरिक्त महारकृत एकत्व की सिद्धि हो सकती है किन्तु उससे मनेकान्तबासी को कोई हानि नहीं हो सकती क्योंकि अनेकान्तबाव में अपेक्षाभेद से गुण में मिन्नता स्वीकार्य है इसलिए समूहकृत एकत्व से व्यावहारिक एकस्व विलक्षण हो यह उसे मान्य है। ___ अपि च, अवयवेववधी एकदेशेन समवेयात् , फातम्येन पा ! । आधे, तदेशस्यापि देशादिकल्पलारामनवस्था । द्वितीये १ प्रत्यययवरामवतात्रयविपात्यप्रसक्तिः । न च देशकातिरकणान्या तिरस्तीनि विवेचितं प्राक् । द्वित्वस्य द्वयोः पमित्यवद् यादवयथे घवयविनः पर्याप्सले यादवयवाहे नवग्रहो न स्यात् , प्रत्येकं पर्याप्तत्वे च प्रत्येक पर्याप्तस्वव्यवहारः स्यादिति निष्करः । किश्च एकस्य निरंशस्याक्यविनः पृथुतरदेशावस्थानमयुक्त स्यात् । न चेदेवम् , एकत्वाऽविशेषात् दुर्घटः स्यात सर्वत्र स्थल-प्रमादिभेदः। अस्प-यहक्यवारम्भादिकुशोऽसौ विशेष इति चेत् १ नहिं नदिशेपपिशिष्या अवयवा एवाययविव्यपदेशं भजन्ताम् , किमवयविपृथग्भावकल्पनाकप्टेन ।। "श्वयवाहपृथग्भयनवयत्री परमाणुसाइभेदमश्नुवन्नध्यक्षो न स्यादिति येत ? न, न छश्यविनोऽपि सऽश्य वा एक, बायु-पिशाभदायनेकान्तान , किन्तु केचिदेव, तथा च परिणामरिशेपनियता योग्यता परमाणुमादभेदेऽपि नामभविनी । न च तत्र महत्त्वाच्यवसायोऽप्यनुपपत्रः, परमाणुसमूहेऽपि विशिष्टे महायपरिणामाऽपाधात् । अत पर धान्यगशौं महन्त्रविशेपाध्यवसायः सूपपदः । [ अवयवी का आशिक अर्चन अनुपपन्न ] अवयवी को अवयव से भिन्न मामले में अवयवों में उस के वतन को अनुपपत्ति भी बाधक है।

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