Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 7
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 236
________________ [ शास्त्रवार्ता स्त० ७ श्लो० ३८ जाम्यन्तरात्मके च-अन्योन्यानुविद्धे च अस्मिन् = भेदाभेदेऽभ्युपगम्यमाने अनरस्थादिदुषणं न भवति - A 'येनस्वभावेन भेदस्तेनाभेदः' इत्युक्तौ विरोधः, इति भिन्नाभ्यां Farari तदङ्गीकारे तयोरपि तत्र वृत्तौ स्वभावभेदगदेषणायामनवस्था, आदिना Barयां स्वभावाभ्यां भेदाभेदस्वभावयोः भेदाभेदस्वभावाभ्यां च तयोः स्वभावयो त्तित्वे C स्वापेक्षितापेक्षितापेक्षायां चक्रक्रम्, D स्त्रापेक्षायामेव वात्माश्रयः, E येन परस्पराश्रयः, स्वभावेन भेदस्याधिकरणं वस्तु तेनाभेदस्य येन च सभावेनाभेदस्याधिकरणं तेन भेदस्य वेति संकर इत्यादि द्रष्टव्यम् । कथमेतद् दूषणं न भवति १ इत्याह-- नियतत्वात् स्वभावनियतत्वाद् भेदाभेदवस्तुनः तथा चोत्पत्तिज्ञप्त्यप्रतिबन्धाद् नानवस्थादिकम् । तदुक्तम्- - ' न चानवस्था, अन्यनिरपेक्ष स्वस्वरूप एव तथात्वोपपत्तेः' इति । अन्यैरप्युक्तम्- - " मूलक्षयकरी प्राहुरनवस्थ हिं दुषणम्" [ न्यायमंजरी ] इति । तथा, विविक्तस्य = अनुभवानुपातिस्वभाववहिर्भू तस्य भेदादेश्व एकान्तवादिपरिकल्पितस्य असंभवात, तेन न संकर इति भावः ॥ ३८ ॥ [ अनवस्थादि पाँच दोष का आपादन ] २२२ ३ कारिका में भेदाभेद पक्ष में सम्भावित अन्य दोषों का निराकरण किया गया है वे दोष हैं - १. अनवस्था, २. परस्पराश्रय, ३. चक्रक, ४. आत्माश्रय और ५. संकर । आशय यह है कि(१) जिस स्वभाव से जहाँ मेव का अस्तित्व होगा उसी स्वभाव से वहाँ अमेव का भी अस्तित्व माना जायेगा तो दोनों में अमेद होगा क्योंकि एक स्वभाव से भेद अमेव का एकत्र अस्तित्व विरुद्ध है । इसलिए भिन्न स्वभावों द्वारा भेद प्रभेद का अभ्युपगम करना होगा। फिर जिन भिन्न स्वभावों को स्वीकार किया जायगा उनका भी एक स्वभाव से प्रस्तिश्व मानने पर विरोध की आपत्ति होगी अतएव उन भिन्न स्वभावों का भी एकत्र अस्तित्व उपपन्न करने के लिए श्रभ्य free] स्वभावों की कल्पना करनी होगी और यही स्थिति अन्य भित्र स्वभावों के सम्बन्ध में भी उपस्थित होगी । फलतः अनन्त स्वभाव भेद की कल्पना होने से अनवस्था होगी। ( २ ) तथा, यदि Hate के एकत्र अस्तित्व को उपपति के लिए स्वीकृत भिन्न स्वभावों से भेदाभेद स्वमात्र को और मेदाभेद स्वभावों से जन स्वभायों को वृत्ति माना जायगा तो परस्पराश्रय दोष होगा । ( ३ ) तथा, यदि मेदाभेद स्वभाव, उन दोनों के एकत्र अस्तित्व नियामक स्वभावभेद और उन स्वभाव मेवों के एकत्र अस्तित्व नियामक स्वभाव मेदों में परस्परापेक्षा द्वारा एक स्थान में भेदाभेद के अस्तित्व का उपपादन किया जायगा तो 'स्व' को 'स्व' के अपेक्षित के अपेक्षित की अपेक्षा होने से चक्र होगा । (४) एवं 'स्व' में 'स्व' की ही अपेक्षा हो जाने से अर्थात् भेदाभेद को भेदाभेद के नियामक स्वभाव की ही अपेक्षा हो जाने से आत्माश्रय होगा । ( ५ ) और यदि वस्तु जिस स्वभाव से भेद का अधिकरण है उसी स्वभाव से प्रभेव का एवं जिस स्वभाव से अभेव का अधिकरण है उसी स्वभाव से भेव का अधिकरण मानी जायगी तो भेव अभेद में संकर हो जायगा अर्थात् भेदाभेद का वैलक्षण्य ही समाप्त हो जायगा, फलतः इन दोषों से ग्रस्त होने के कारण एक वस्तु में भेदाभेव दोनों को मान्यता नहीं प्रदान की जा सकती ।

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