Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 7
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 245
________________ errono टीका एवं हिन्दी विवेश्वन ] , I योर्जात्यन्तरात्मकत्वाभावात्, अन्योन्यानुवेधेन स्वभावान्तरभावनिबन्धनस्यैव तत्त्वात् अत्र स्निग्धोष्णत्व आले रक्तत्व - कृष्णत्वयोरिव खण्डशो व्याप्त्यावस्थानात् जात्यन्तरात्मकस्निग्धोष्णत्वशालिनि च दाडिमे श्लेष्म वित्तोभयदोषाऽकारित्वमिष्टमेव, "" स्निग्धोष्णं दाडिमं हृद्यं श्लेष्म- पित्तावरोधि च' इति वैद्यकवचनादिति । इदसिंह तच्त्रम्-तद्भेदस्य तदेकत्वाभावादिनियतत्वेऽपि जात्यन्तरानात्मकस्यैव विलक्षणस्य तस्य तथात्वात् विलक्षण गुडत्वस्य कफका - रितानियतत्ववद् न दोषः । एतेन 'मया भेदसामान्यं तन्नियमः कल्पनीयः, त्वया तु जात्यन्तरानात्मके तत्र, इति गौरवम्' इति निरस्तम्, प्रतिस्विकरूपेणैव तन्नियमोपपत्तेरिति दिग् ॥ ४८ ॥ २३१ [ उरद में स्निग्धता और उष्णता की खंडशः व्याप्ति ] यदि यह कहा जाय कि 'जात्यन्तर होने पर भी उससे प्रत्येक दोष को निवृत्ति होने का नियम नहीं है क्योंकि उदाहरणार्थ. स्निग्ध प्रकृति और उष्ण प्रकृति के द्रव्यों से जैसे कफ और पित्त की उत्पत्ति होती है उसी प्रकार स्निग्ध और उष्ण उभय प्रकृति से युक्त तथा केवल स्निग्ध पौर केवल उष्णद्रव्य से अन्य जातीय, माष उयं से कफ और पित्त दोनों की उत्पत्ति होती है, निवृत्ति उन दोनों में से किसी की भी नहीं होती है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि साथ में जो स्निग्धता और उष्णता है वह जात्यन्तररूप नहीं है क्योंकि परस्पर अनुवेध से स्वभावान्तर होने पर ही जात्यन्तरता की उपपत्ति होती है। माष में स्निग्धता और उष्णता ठीक उसी प्रकार खण्डशः व्याप्त होकर एवस्थित होती है जैसे गुञ्जाफल में रक्तिमा और कालिमा अनार, जिसमें जात्यन्तर रूप स्निग्धताउष्णता है उसमें कफ और पित्त दोष की उत्पादकता का न होना इष्ट ही है । जैसा कि वैद्यक में कहा गया है कि अनार को प्रकृति स्निग्ध और उष्ण दोनों होती है अतः उससे कफ और पित्त का अवरोध होता है ।' [ जात्यन्तरानात्मक भेद और एक स्वभाव की व्याप्ति ] प्रस्तुत विषय में वास्तविकता यह है कि तद्वस्तु के भेद में तद्वस्तु के एकस्वभाव की जो व्याप्ति है वह जात्यन्तरानात्मक भेद और स्वभाव में ही है। यह ठीक उसी प्रकार से विलक्षण गुड़त्व में ही कफकारिता की व्याप्ति का नियम है। इस पर यह कहना कि एकान्तवादी के मत में सामान्य में उक्त नियम माननीय होता है और अनेकान्तवादी के मत में जात्यन्तरानात्मक भेव में उक्त नियम के कल्पनीय होने से गौरव होगा' अनायास हो निरस्त हो जाता है, क्योंकि प्रातिस्पिकरूप से ही उक्त नियम की उत्पत्ति होती है । अतः सामान्यरूप से नियम की कल्पनीयता के आधार पर उक्त दोष का उद्भावन नहीं किया जा सकता । श्राशय यह है कि सेव का प्रतियोगी ● से मुक्त कोई सामान्य स्वरूप नहीं होता अतः प्रतियोगी भेद से मेद भी भिन्न-भिन्न होता है, फलतः अमुकामुक मेद में अमुकामुक के एकत्वाभाव की व्याप्ति बन सकती है । अतः व्याप्य मेद में अभेदसहभावी मेद का समावेश न होने से सामञ्जस्य हो जाने के कारण कोई आपति नहीं हो सकती ॥ ४८ ॥

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