Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 7
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 260
________________ २४६ शास्त्रया ० त०७ श्लो०६६ प्रत्यभिज्ञा भी अप्रमाण हो सकती है इस प्रकार मा संशय होने से विवादास्पद प्रत्यभिशा के विषयमूत मर्थ का निश्चय नहीं हो सकता' । कारिका का अर्थ इस प्रकार है--शुक्तिसीप में रजत का प्रत्यक्षाभास होने पर भी जैसे वास्तव में रजत का यथार्थ प्रत्यक्ष. प्रत्यक्षरव रूप से प्रत्य का समानधर्मी होने पर भी प्रत्यक्षाभास नहीं होता किन्तु यथार्थ ही होता है, ठीक उसी प्रकार कटने के बाद पुनः उत्पन्न नख आदि का प्रत्यभिज्ञाभास होने पर भी पूर्वापर पदार्थ में होने वाली 'सोऽयं यह प्रत्यभिज्ञा, प्रत्यभिज्ञात्य रूप से प्रत्यभिज्ञाभास का समानधर्मी होने पर भी प्रत्यभिज्ञामास नहीं हो सकतो, अतः उसमें प्रामाण्य का अभ्युपगम ही न्यायसङ्गत है। आशय यह है कि जैसे भ्रम और प्रमा दोनों में रहने वाले प्रत्यक्षत्व रूप साधारण धर्म के दर्शन से प्रमात्मक प्रत्यक्ष में प्रामाण्य का संशय उसमें उत्तरवर्ती प्रत्यय से अबाध्यत्वरूप विशेष धर्म के निश्चय से प्रतिबद्ध हो जाता है, ठीक उसी प्रकार श्रम और प्रमा में रहने वाले प्रत्यभिज्ञात्वरूप साधारण धर्म के दर्शन से यथार्थ प्रत्यभिज्ञा में सम्भावित प्रामाण्य संशय भी 'उत्तरकालीन प्रत्यय से अबाध्यत्व' रूप विशेष धर्म के निश्चय से प्रतिबद्ध हो जाता है ।। ६५ ।। न चेयमतन्त्रसिद्धत्याहमूलम्-मतिज्ञानविकल्पत्वान्न धानिष्टिरियं यतः। एनबलात्ततः सिद्ध नित्यानित्यादि वस्तु नः॥ ६६ ॥ यतो मतिज्ञानविकल्पत्वाद् न चेयमनिष्टिः प्रत्यभिज्ञाङ्गीकारो नापसिद्धान्त इत्यर्थः, वासनाधारणाफलत्वेन तदुपगमात , तत एतदलात्-प्रत्यभिज्ञान्यथानुपपत्तेः नः-अस्माकं नित्यानित्यादि वस्तु सिद्धम् , आदिना सदसदादिग्रहः । तदेवं सिद्धो वस्तुयाथात्म्यपरिच्छेदप्रवणः स्याद्वादः । एतदेकदेशालम्बना एव परस्परनिरपेक्षाः प्रवर्तन्तेऽपरिमिताः परसमयाः । तदुक्तम्- सम्मति० ३/१४४ ] * जावइआ वयणपहा तारइआ चेव हुँति पयवाया । जावइआ पयवाया तावइआ चेव परसमया ॥१॥ इति । अस्यार्थः-यावन्तो वचनपथाः बक्तृविकल्पहेतवोऽध्यबसायविशेषाः, तावन्तो नय. पादाः तज्जनितवक्तृविकल्पाः शब्दात्मकाः, सामान्यतो नगमादिसप्तभेदोपग्रहेऽपि प्रतिव्यक्ति तदानन्त्यात् । यावन्तश्च नयवादास्तारन्त एव परसमयाः, निरपेक्षवक्त विकल्पमात्रकल्पितत्वात् तेपाम् । ६६वीं कारिका में यह बताया गया है कि पर्वापर पदार्थ में होने वाली 'सोऽयं' प्रत्यभिज्ञा जनतन्त्र को दृष्टि में असिद्ध नहीं है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है-यतः उक्त प्रत्यभिज्ञा मतिज्ञान का विकल्प होने से अनिष्ट नहीं है अर्थात प्रत्यभिज्ञा का अभ्युपगम जनसत्र की दृष्टि में अपसिद्धान्त नहीं है, क्योंकि वासना और धारणा के फलस्वरूप में प्रत्यभिज्ञा स्वीकृत है, इस लिये प्रत्यभिज्ञा की यावन्तो वचनपथास्तावन्त एव भवमि मत एक भवान्त नयवादा: । यावन्ता नयबादास्तावन्त एव परसमयाः ।।

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