Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 7
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 259
________________ स्थाका टीका एवं हिन्दी विवेचन ] प्रत्यभिज्ञाभासव्यावृत्ततयाऽस्याः प्रामाण्यमुपपादयतिमूलम्-~-या च लुनपुनर्जातनख-केश-तृणादिषु । इयं संलक्ष्यते सापि तवाभासा न सैव हि ॥ ६४ ॥ __ या च जूनपुनर्जातनख-केश-तृणादिषु इयं-प्रत्यभिज्ञा संलक्ष्यते स एवायं नखः' 'स एवायं केशः' 'तदेवेदं तृणम्' इत्याल्लिख्यते, सापि तदामासा-प्रत्यभिज्ञाभासा, न सैव हिन्न प्रत्यभिज्ञानमेव हि, लूनपुनर्जातत्वप्रतिसंधाने तत्र याधावतारात , इयं च बैलक्षण्यात् प्रमेवेति भावः ।। ६४ ॥ [ सभी प्रत्यभिज्ञा भ्रमात्मक नहीं होती ] ६४वीं कारिका में पूर्वापर पदार्थ में 'सोऽयं' इस प्रत्यभिज्ञा को 'भ्रमात्मक प्रत्यभिज्ञा' से विलक्षण बताते हुए उसके प्रामाण्य का उपपादन किया गया है। कारिका का प्रथं इस प्रकार हैकटने के बाद पुनः उत्पन्न नख, केश और तृण आदि में जो स एव प्रयं नखः - यह वही नख है' 'स एव अयं केश:--यह वही केश है' 'तदेव इदं तृणम्-यह वही तृण हैं। इस प्रकार को प्रत्यभिज्ञा होतो है केवल वही भ्रमात्मक प्रत्यभिज्ञा है, क्योंकि नख आदि में कटने के अनन्तर पुनः उत्पन्न होने का ज्ञान होने पर यह पहला नख नहीं है किन्तु दूसरा नया नख है. यह पहला केश नहीं है किन्तु दूसरा नया केश है, तथा यह पहला तृरण नहीं है किन्तु दूसरा नया तृण है' इस प्रकार के बाधक प्रत्यय का उदय होता रहता है। उसके दृष्टान्त से सभी प्रत्यभिज्ञा को भ्रमात्मक नहीं माना जा सकता । इस लिए पूर्वापर पदार्थ में होने वालो 'सोऽयं यह प्रतिज्ञा, कटने के बाद पुनः उत्पन्न होने वाले नख आदि में होने वाले प्रत्यभिज्ञा से, विलक्षण होने के नाते प्रमा है ।। ६४ ।। नन्धेवमपि लूनपुनर्जातनख-केशादिषु प्रत्यभिज्ञायत् प्रकृतप्रत्यभिज्ञाप्यप्रमाणं भविष्यतीति संशयाच कथमर्थनिश्चयः ? इत्यत आहमूलम्-प्रत्यक्षाभासभावेऽपि नाऽप्रमाणं यथैव हि । प्रत्यक्षं, तबदेवेयं प्रमाणमवगम्यताम् ।। ६५ ॥ प्रत्यक्षाभासभावेऽपि='शुक्तौ रजतम्' इति मिथ्याप्रत्यक्षसद्भावेऽपि यथैव हि नाऽभमा प्रत्यक्षं-इदं रजतम्' इत्यादि समीचीनं प्रत्यक्षम् , तद्रदेधेयं-प्रत्यभिज्ञाभामसद्भावेऽपि प्रमाणमवगम्यताम्-प्रमात्वेन निधीयताम् , भ्रमप्रमासाधारणप्रत्यक्षत्वदर्शनजनितस्य प्रत्यक्ष इव तादृशग्रत्यभिज्ञात्यदर्शन जनितस्य प्रकृतप्रत्यभिज्ञायामपि प्रामाण्यसंशयस्याऽबाध्यत्वविशेपदर्शनेन निवर्तमादिति भावः ॥ ६५ ॥ [ प्रत्यभिज्ञा में प्रामाण्यसंशय का निराकरण] ६५वौं कारिका में इस क्ति का निराकरण किया गया है कि-'करने के बाद पुन: उत्पन्न मल आदि में होने वाली प्रत्यभिज्ञा जसे अप्रमाण होती है उसी प्रकार-पूर्वापर पदार्थ में होने वाली

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