Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 7
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 254
________________ २४० [ शास्त्रबार्ता स्त० ७ श्लो०५८ खण्घटव्यक्ति की उत्पत्तिरूप बंधय के होने पर भी खण्डघट और अखण्डघट में शुद्ध व्यक्त्यभेद होने में कोई विरोध नहीं हो सकता है। अतः पूर्वापरकालोन घटव्यक्ति में उक्तरीति से विशिष्ट मेव और शुद्ध व्यक्त्यमेव दोनों सम्भव होने से ही उक्त प्रत्यभिज्ञा की उपपत्ति होती है, न कि पूर्वापर घट में एकमात्र अभेद को हो मान्य करने पर हो सकती है । किच, एकान्तैक्ये 'सोऽयम्' इति विशेषणविशेष्यभारस्यैवानुपपत्ति, अन्यथा 'घटो घटः' इत्यपि स्यात् , 'घटो घटस्वभाववान्' इतिवत् । 'क्वचिदेव किश्चित स्वस्मिन् प्रकारीभूय भासते' इति चेत् १ तर्हि घटे घटत्वं स्वात्मकमेव भासताम् । 'व्यक्तेजातिविलक्षणैचानुभूयत' इति चेत् ? तत्तदंतयोरपि किं न वैलक्षण्यमनुभवसि ? । 'एवं'-रजतमिदम्-इत्यत्रेदमर्थ-रजतयोरपि भेदः स्यादिति चेत् ? स्यादेवेदन्त्व-रजतत्वाभ्याम् , स्वद्रव्यान्वयेन तु न स्यादिति न किञ्चिदेतत् । यस्त्वेकान्ततो नानात्वमेवाङ्गीक्रियते तेपामुक्तप्रत्यभिज्ञाया गन्धोऽपि नास्ति, पूर्वापरयोरेकस्वाऽयोगात् । उक्तं चैतत् प्राक्, वक्ष्यते चानुपदमपि ॥ ५८ ।। [एकान्ताभेद पक्ष में विशेषण-विशेष्यभाव असंगत ] पूर्वापरकालीन घट में सर्वथा ऐक्य मानने पर उक्त प्रत्यभिज्ञा की उक्त अनुपपत्ति के समान प्रत्य प्रकार की भी अनुपपत्ति होगी, जैसे उक्त पक्ष में 'सोऽयं इस वाक्य में तत पदार्थ और दर्द पा के प्रयन्त अभिन्न होने पर उनमें विशेषण-विशेष्य भाव को अनुपपत्ति होगी। और यदि तत पदा तथा इदं पदार्थ के सर्वथा ऐक्य होने पर भी उनमें विशेषण-विशेष्य भाव माना जायगा तो 'घटो घटः' इस वाक्य में भी दो घट पदों के अर्थ में विशेषण-विशेष्य भाव को उसीप्रकार मान्य करना होगा जैसे 'घटः घटस्वभाववान' इस वाक्य के दोनों पदों के अर्थों में विशेषण विशेष्यभाय मान्य होता है। यदि यह कहा जाय कि-"स्थलविशेष में ही कोई पदार्थ अपने में ही प्रकारविधया भासित होता है, सर्वत्र नहीं । अतः सोऽयं इस वाक्य में इदं पदाथ में तव पद के उसी अर्थ का विशेषणरूप में मान मानने पर और 'घट: घटस्वभाववान्' इस वाक्य में घट में 'घटस्व मावधान' इस शब्द के उसी अर्थ का विशेषगरूप में भान मानने पर भी 'घटो घटः' में घटपदार्थ में विशेषणरूप से घट पदार्थ के भान को आपत्ति देना उचित नहीं है"-तो यह भी कहा जा सकता है कि घट में घटात्मकही घटरव का मान होता है, फलतः घट और घटत्व में प्रतिवादी द्वारा मान्य एकान्तभेद की सिद्धि न होगी। यदि यह कहा जाय कि-"घटत्व जाति है और 'घट' उसका आश्रय मृत व्यक्ति है प्रत एव घर में भासमान घटत्व को घटात्मक नहीं माना जा सकता, क्योंकि जाति व्यक्ति से भिन्न रूप में ही अनुमत होतो है"-तो फिर यह भी कहा जा सकता है कि जाति और व्यक्ति के समान ही तत्ता और इदन्ता में भी तो भेद ही है फिर उसे भी भिन्नरूप में क्यों नहीं अनुभव करते ? फलतः तत् पदार्य और इदं पदार्थ के सर्वथा ऐक्य मानने पर उनमें विशेषण-विशेष्यमाव की अनुपपसि अपरीहार्य है। यदि यह शङ्का की जाय कि “जैसे सोऽयं में तत् पदार्थ और इवं पदार्थ में भेद है उसीप्रकार 'रजतमिवं' इसवाक्य में इदंपचार्थ और रजतपदार्थ में भी भेव होगा" तो यह शडा नगण्य

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