Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 7
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 253
________________ स्पाक टीका एवं हिन्दी विवेचन ] २३१ प्रस्तुत विषय का मर्म यह है कि जो लोग पूर्ववर्ती पौर परवर्ती घट प्रादि में सर्वथा ऐक्य मानते हैं, उनके मत में भी शुद्ध और विशिष्ट का मेव एवं एककालावच्छिन्न में अन्यकालावच्छिन्न का मेव तथा रक्तरूपावच्छिन्न में श्यामरूपावच्छिन्न का भेद होता ही है, तो फिर उनके मत में पूर्ववर्ती और परवी घट अादि में अभेदात्मक एकत्व की प्रत्यभिज्ञा फंसे हो सकती है ? यदि यह कहा जाय कि-'पूर्ववर्ती घटव्यक्ति और परवर्ती घटव्यक्ति में तब-व्यक्तित्व एक है अतः तव-व्यक्तित्वाच्छिन्नप्रतियोगितानिरूपक भेद उनमें न होने से उस भेद के अभावरूप एकत्व की प्रत्यभिज्ञा होने में कोई बाश नहीं है' ने जो नहीं है क्योंकि काल और परकाल के बीच घटव्यक्ति के परमाणु घणुक प्राधि का निर्गम होने से परकालवर्ती घट खण्डघट हो सकता है जो पूर्वकालवी अखण्ड घर से भिन्न होने के कारण पूर्वकालोन घटव्यक्ति निष्ठ तव्यक्तित्व का आश्रय न होने से व्यक्तित्यावच्छिन्न प्रतियोगिताकभेद का आश्रय है। अतः उसमें उस भेद के अभाव रूप एकत्व को प्रत्यभिज्ञा नहीं हो सकती। इसके साथ यह भी ज्ञातव्य है कि परवर्ती घटव्यक्ति वास्तव है यह निश्चय रखने पर भी उसमें पूर्ववर्ती घट के अमेवात्मक एकत्वको विषय करने वाली प्रत्यभिज्ञा होती है जो तदष्यक्तित्वावच्छिन्नप्रतियोगिताक भेदाभाव रूप एकत्व को ले कर नहीं हो सकती। यह भी नहीं कहा जा सकता कि-'पूर्वापर घटव्यक्ति के ऐक्य को विषय करने वाली प्रत्यभिज्ञा पूर्वकालीनव्यक्तिवृत्तिघटत्वावच्छिन्न प्रतियोगिताक भेव के अभाव को विषय करती हैक्योंकि घटत्व को अपेक्षा पूर्वकालीनघटव्यक्तिवृत्ति घटत्य गुरु होने से तदवच्छिन्नप्रतियोगिताकद अप्रसिद्ध होने के कारण उसका अभाव भी प्रसिद्ध होने से प्रत्यभिजा को उक्त मेवाभाव विषयक कहना सम्भव नहीं है। ___ यह भी नहीं कहा जा सकता कि-"सोऽयं इस प्रत्यभिज्ञा में 'तत्' पदार्प पूर्वकालीन घटव्यक्ति' का 'इदम् पदार्थ परकालपर्ती घडव्यक्ति' में घटत्वावच्छिन्न प्रतियोगिताक भेदाभाव सम्बन्ध से भान मानने में उस प्रत्यभिज्ञा को अनुपपत्ति नहीं हो सकती है ।"-क्योंकि ऐसा मानने पर पूर्वकालीन एक घटव्यक्ति को परकालोन अन्य घटध्यक्ति में भी 'सोऽयं इस प्रत्यभिज्ञा की आपत्ति होगी। यदि यह कहा जाय कि-'सोऽयं इन प्रत्यभिज्ञा में इदम् पदार्थ में तत पदार्थ का शुद्ध व्यक्त्यभेद से ही भान होता है और व्यक्ति का शुद्धव्यक्त्यभेद अन्य व्यक्ति में नहीं होता अत एव एक घटव्यक्ति को श्रद्धव्यक्त्यभेद सम्बन्ध से अन्य व्यक्ति में विषम करने वालो प्रत्यभिज्ञा भ्रमात्मक ही होगी । अतः पूर्वापरवर्ती एक घटव्यक्ति में ही उक्त प्रत्यभिज्ञा प्रमात्मक होगी"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि-'देश भङ्ग-किसी एक भाग का भङ्ग होने पर व्यक्तिभेद होता ही है व्यक्त्यमेद नहीं होता, और रूप का भङ्ग होने पर व्यक्तिभेद नहीं होता' इसमें कोई प्रमाण नहीं है। [विशिष्टभेद होने पर भी शुद्ध व्यक्ति का अभेद ] अतः जैसे एक घट में पाक से श्यामरूप का नाश हो कर रक्तरूप की उत्पत्ति होने पर रक्तवशापन्न घट में श्यामदशापन उसी घट का विशिष्ट भेद होता है उसी प्रकार जब कोई व्यक्ति अपने परमाण दयणक-आदि भाग का निर्गम होने से स्खण्ड घट हो जाता है तो खण्डदशापन उस व्यक्ति में प्रखण्डदशापन्न उस व्यक्ति का विशिष्ट भेद हो सकता है और जैसे रक्त दशा में श्याम रूप विशिष्ट घट का नाश और रक्तरूप विशिष्ट घट की उत्पत्ति रूप वैधयं के होने पर भी उनमें शल अपत्यभेद होने में कोई विरोध नहीं होता, उसी प्रकार पूर्वकालीन अखण्ड घटव्यक्ति का नाश और

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