Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 7
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 235
________________ स्या० का टीका एवं हिन्दी विवेचन ] २२१ पाकशालागत वसयमाव के सहानवस्थान का दर्शन होने पर भी जलहृद में दोनों का सहावस्थान होता है, ठीक उसी प्रकार प्रतियोगी से विशेषित भेद और अभेद का किसी अन्य एक स्थान में सहानवस्थान का दर्शन होने पर प्रकृत द्रव्य में वोनों का समावेश हो सकता है। । रूप-गन्धवत भेदाभेद में भी अनवच्छिन्नल्य ] प्राशय यह है कि एकमद्रव्य के कई आकार होते हैं जैसे पिण्ड, घट आदि । उनमें पिण्ड का अथवा घट का सेव-प्रमेव दोनों पिण्ड-घट दोनों में से किसी भी एक में नहीं रहता, किन्तु मदद्रव्य घटात्मना पिण्ड से भिन्न होता है और मदात्मना किया पिण्डारमना पिण्ड से अभिन्न होता है, एवं, मवतव्य पिण्डात्मना घट से भिन्न होता है किन्तु मदात्मना कि वा घटात्मना घट से अमिन होता है। यदि यह कहा जाय कि-'गन्ध और रूप पथ्वी में जैसे अवच्छेवक भेद के बिना भी समाविष्ट होते हैं उसोप्रकार भेव और अभेव को भी अवच्छेदक मेव के विना एकत्र समाविष्ट होना चाहिए-तो इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि जो अवच्छेदक निरपेक्ष होता है वह अनयच्छिन्न ही होता है और जो अयच्छेदक सापेक्ष होता है वह अवच्छिन्न ही होता है। गन्ध और रूप कहीं भी अवच्छेदक की अपेक्षा नहीं रखते, अत एव ये पृथ्वी में अनावच्छिन्न होते हैं। किन्तु, भेद और अमेव प्रयच्छेदक की अपेक्षा रखते हैं, जैसेः पिण्ड का भेव घटत्यावच्छिन्न में होता है एवं पिण्ड का प्रभेद पिण्डत्वावच्छिन्न में होता है । प्रतएव मद्रव्य में पिण्ड के भेदाभेद को भी अवच्छिन्न होना युक्तिसङ्गत है। [ रूप और गन्ध का अवच्छदक स्वभाव भेद ] किन्तु यह ज्ञातव्य है कि वास्तव में एकान्त पक्ष कहीं भी मान्य नहीं है । रूप और गन्ध मी भिन्न स्वभावरूप अवस्छेचक द्वारा ही पृथ्वी में अवस्थित होते हैं। यदि ऐसा न होकर ये दोनों अभिन्न स्वभाव से पथ्वी में अवस्थित हो तो स्वभाव अभेद होने से उनमें ऐक्य की आपत्ति हो जायगी। एक वस्तु का अन्य वस्तु के स्वभाव से न रहना उचित मी है, क्योंकि गन्ध रूप के स्वभाव से पृथ्वी में नहीं है यह सर्वमान्य व्यवहार है। यदि यह कहा जाय कि-मेद और अभेद में सामानाधिकरण्य के अनुभव का बाथरूप विरोध एवं सहानवस्थान के नियमरूप विरोध के न होने पर भी तोसरे प्रकार का विरोध हो सकता है और वह यह कि भेदज्ञान का अभेदज्ञान से एवं अमेदज्ञान का मेवज्ञान से प्रतिबन्ध होने से दोनों में परस्पर ज्ञान के प्रतिबन्धकज्ञान की विषयता है और यही उनमें विरोध है। किन्तु यह विरोध भी इस आधार पर निराकृत हो जाता है कि मेवग्रह और अभेदग्रह की जनक सामग्रियों में भेव है, उन दोनों सामग्रियों का एक काल में सन्निधान नहीं होता, अतः दोनों का ज्ञान एक साथ नहीं होता, अतः उनके एक साथ न होने के कारण उनमें परस्पर प्रतिबध्य प्रतिबन्धक भाव का होना सम्भव नहीं है किन्तु कोनों की जनक सामग्री का एक काल में उपस्थित न होना ही युक्त है। इसोप्रकार रूप और गन्ध में पथ्यो द्रव्यात्मना अभेद होने पर भी रूपत्व प्रौर-गन्धस्य रूप से प्रभेद होने के कारण तथा रूपत्वेन रूपग्रहण और गन्धन सन्ध्र ग्रहण की जनक सामग्री विलक्षण होने से रूपस्वरूप से रूपवत्ता का ज्ञान होने पर भी गन्धत्वरूप से गन्धवत्ता का ज्ञान नहीं होता ।।३७॥ दोषान्तरनिराकरणायाह---- मूलम्---जात्यन्तरात्मके चास्मिानवस्थाविदूषणम् । नियतत्वाद् विक्तस्य भेदादेश्चाप्यसंभवात् ॥ ३८ ॥

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