Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 7
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 239
________________ स्या क.टोका एवं हिन्वी विवेचन ] २२५ वस्तु प्रत्यक्ष द्वारा बाषित है, अतः स्पष्ट है कि ऐसे युक्तिहीन विकल्पों से सस्यपक्ष का अपलाप नहीं किया जा सकता । यति युक्तिहोन विकल्पों से सत्यपक्ष का श्याग होगा तो घर मादि समस्त भाव पदार्थ विकल्पग्रस्त होने से त्याज्य हो जायेंगे और अन्त में सर्वशून्यता की आपत्ति हो जाएगी। अंसे, घट आदि के सम्बन्ध में भी इस प्रकार का विकल्प हो सकता है कि घर जिस स्वमाय से रहता है उसी स्वभाव से उसका स्वभाव भी रहता है या अन्य स्वभाव से रहता है। प्रथम पक्ष में घट और उसके स्वमाय में व्यतिकर होगा और दूसरे पक्ष में अन्य स्वभाव के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार का प्रश्न और उत्तर का प्राश्रय लेने से पनवस्था होगी। फलतः घट का अस्तित्व सिद्ध न होने से शुन्यता को आपत्ति अनिवार्य है ।।४।। दोषान्तरनिराकरणमप्यतिदिशनाहमूलम् ---एवं घुभयदोषादिदोषा अपि न दूषणम् । सम्यग्जात्यन्तरत्वेन भेदाभेदप्रसिद्धितः ।। ४२ ।। एवं हि-भेदाभेदात्मकवस्तुनः प्रत्यक्षसिद्धत्वे हि, उभयदोषादिदोषा अपि उभयदोषाभ्यां साधारणाकारेण निश्चेतुमशक्यत्वात् संशयः, ततोऽप्रतिपत्तिः, ततो विषयव्यवस्थाहानिरित्यादयोऽपि न दूषणम् । कुतः १ इत्याह-सम्यगनय-प्रमाणोपयोगेन, जात्यन्तरत्वेन= अन्योन्यच्याप्तत्वेन, भेदाभेवप्रसिद्धितः भेदाभेदनिश्चयात् । अयं भावः-प्रत्येकं नयापैणया प्रत्येकरूपेण, युगपत्तदर्पणया चोभयरूपेण सप्तभंग्यात्मकप्रमाणाच्च प्रतिनियतसकलरूपैनिश्चयाद् नोभयदोषादितः संशयादिकम् । दुर्नयवासनाजनितं संशयादिकं चेदृशविशेषदर्शननिरस्यमिति न मिथ्याखदोषात् तथाऽनिश्चीयमानमपि न तथा पस्त्यिति स्मर्तव्यम् । न ह्ययं स्थाणोरपराधो यदेनमन्धो न पश्यतीति ॥ ४२ ॥ [संशय और अप्रतिपत्ति दोषयुगल का प्रतिकार ] ४२वीं कारिका में यह बताया गया है कि भेदाभेदात्मक पक्ष में एकान्तवादी द्वारा उद्भावित अनवस्था आदि दोष जैसे नहीं होते उसी प्रकार अन्य आपादित बोष भी नहीं हो सकते। कारिका का अर्थ इस प्रकार है भेदामेवात्मक वस्तु प्रत्यक्ष सिद्ध होने के कारण भेवाभेव पक्ष में संशय और अप्रतिपत्ति ये दोनों दोष तथा तन्मूलक अन्य दोष भी नहीं हो सकते क्योंकि नय और प्रमाण द्वारा परस्पर व्याप्त भेदाभेद सिद्ध है। प्राशय यह है कि भेदाभेद पक्ष में एकान्तवादी द्वारा अन्य प्रकार से भी दोषों का उद्भावन किया जाता है। जै उदावन किया आता है। जैसे-एकान्तवादो का कहना है कि वस्त को यदि भेदअभेद उभयात्मक माना जायगा तो भिन्न और अभिन्न का कोई साधारणरूप नहीं होने से किसी एक रूप से वस्तका निश्चयन हो सकने से इस प्रकार का सशय होगा कि अमुक वस्त भिन्न है अथवा अभिन्न? और इस प्रकार का संशय हाने से वस्तु की प्रतिपत्ति अर्थात किसी निश्चित रूप से सिद्धि न होगी । इन दोनों दोषों का परिणाम यह होगा कि कोई विषय किसी रूप में व्यवस्थित न हो सकेगा। किन्तु प्रन्थकार का कहना है कि एकान्तबानो द्वारा उद्भावित होने वाला यह दोष

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