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[HINवास्त.७ पलो. २५
न वावत् समासस्वथा, बग्रीहेरन्यपदार्थप्रधानत्वात् । अव्ययीभावस्य योमयपदप्रधानत्वेऽप्यत्रार्थे प्रातः । इन्द्रस्यापि दृष्यवृतेः प्रकृतार्थाऽप्रतिपादकत्वात , एकमनूध वदप्रातः, गुणवृत्तेरपि द्रव्याश्रितगुणप्रतिपादकत्वेन प्रधानभूतयोगुणयोरप्रतिपाद्यत्वात् । तत्पुरुषस्याप्युसरपदप्रभा: | गो संपाचे पदका पवारमा पुनःपा प्रत्याविषयत्वात् । एकशेषस्य चासंभषात् , अन्वतुल्यत्वाच्च । न च समासान्तरस-दावोऽस्ति, येन युगपद् गुणद्वयं समासपदवाच्यतामास्कन्देत् । अत एव न विग्रहवाक्यमपि तथा, तस्य त्यभिन्नार्थत्वात् । न च फेवलं पदं यास्य वामपनोकप्रसिद्ध तथा तस्यापि परस्परापेक्षद्रव्यादिविषयतया तथाभृतार्थप्रतिपादकत्वाऽयोगात् । न च सूर्याचन्द्रमसोः पुष्पदन्तपदवत् , शत-शानयोः सत्पदवत् चा समितिकमेकं पदं वथा वस्तुं समर्थम् , तस्यापि क्रमेणादयप्रत्यायकत्वात् "समदुमारित पदे सकदर्थ बोधयति" इति न्यायात् ।
[स्याद् अस्ति' प्रथमभंग का अभिप्राय ] ग्याख्याकार ने तसङ्गों के प्रतिपाद्य अर्थों के वर्णन में प्रथम भंग के अर्थका प्रतिपादन करते हमे कहा है कि घटादिस्वरूप से पदाधिवस्त के प्रतित्व को विवक्षा से प्रभमभङ्ग प्रवृत्त होता है और उस का तात्पर्य वस्तु के असश्वीपसम ऐसे सवप्रतिपावन में अर्थात् गौणरूप से प्रसव और प्रधानरूप से सस्य के प्रतिपावन में होता है। भता सरुवापय में स्थान पर सममिव्याहार से अस्तिपद की 'स्यात्' पर से विवक्षित पेशा से मित्र अपेक्षा द्वारा असत्वविविद सत्व में लक्षणा हो जाती है। से वतमायय में स्यात् पद से घट की स्वस्मारमकापेक्षा नियमित है अत: उस में पस्तिपत्र की परकपासिस्वविशिष्ट सस्व में लक्षणा हो जाने से और उसमें स्यात् पवार्य का सम्बय होने से घटः स्यास्ति' इस भंग से 'घट परकपसापेक्षमसर विशिष्ट स्वरूपेण सत्वयान' अर्थात 'पट पटायामक परम्प से प्रसत् होता हुमा घटाचारमस्वरूप से सत है इसप्रकार का बोध होता है। इसमें पररूप से असत्य स्मरूपेण सत्व का विशेषण हो जाने से गौण हो जाता है और स्वरूपेण सरव मुख्य विषय ५८ में साक्षात् अन्धित होने से प्रधान होता थे । एक्कार से स्यादहित' इस भाग से मोघ अघ के प्रयोगका निषंय बोषित होता है । इस प्रकार 'घटः स्यारत्येष' इस प्रथमभ से होनेवाले रोष का आकार यह होता है कि 'घट पररूप में प्रसव होते हय स्वरूप से अस्तित्व का प्राश्रय और उक्तविष अस्तित्व के प्रयोगाभाष का माश्य है।
[पाद नास्ति' द्वितीय भंग का तात्पर्य विवरण ] पटाचास्मक पररूप से घर के मास्तित्व को विवक्षा से 'घट: स्यानास्त्येव' इस द्वितीयभङ्गो प्रकृति होती है । इसका तात्पर्य घर के स्पोपसर्थम-असत्व' के प्रतिपादन में अर्थात गौणरूप से सस्य और प्रपानरूप से अप्सरव के बोधन में होता है। इसके भी शाम्बबीम को विषि प्रपमभङ्गके कारोथ के विधि से समान है। शब्द का स्वभाव ही ऐसा कि शामबोधात्मक प्रतीति एक को उपसर्जन गौण और अन्य को प्रधानरूप से ही अवगाहन करती है। इसमबन से यह प्रतीत होता है कि तसत् धर्म विशिष्ट का वाचक पथ, विरोधीधर्मान्तर से विशिष्ट सहमविशिष्ट में समितिक