Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 7
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 219
________________ स्था० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] २०५ जह दससु दसगुणम्मि य एगम्मि दत्तणं समं चेव । अहिअपि विगुणसद्दे तहेव एयं पिदट्ठव्वं ॥ १५ ॥ इति । [ सन्मतिप्रकरण में पर्याय भिन्न गुण का निरसन ] यही बात सम्मति प्रकरण की 'रूब रस गन्ध फासा' इत्यादि आठ गाथाओं में कही गयी है । जैसे- कुछ लोग ऐसा मानते है कि रूप, रस, गन्ध और स्पर्श ये चारों द्रव्यग्राही प्रमाण से भिन्न प्रमाणग्राह्य और मिन लक्षणवाले हैं अतः द्रव्यानुगत गुण हैं (८) । किन्तु गुण की द्रव्य से भिन्नता दूर रहो गुण शब्द में हो परीक्षा करनी है कि पर्याय से अतिरिक्त में गुण शब्द का तात्पर्य है प्रथवा पर्याय में हो गुण पथ का प्रयोग है ? ( १ ) | भगवान ने द्रव्यास्तिक और पर्यायास्तिक दो हो नयों का उपदेश किया है । यदि पर्याय से भिन्न गुण का अस्तित्व मान्य होता तो गुणास्तिक नय का भी प्रयोग किया गया होता (१०) । तदुपरांत, भगवान ने गौतम आदि को विभिन्न सूत्रों में नियमतः पर्यय शब्द का उपदेश किया है अतः वे पर्यायरूप ही हैं (११) । पर्याय का अर्थ है परिगमन और गुण का अर्थ है प्रनेककरण । ये दोनों ही अर्थ वास्तव में समान हैं फिर भी गुण शब्द से इन अर्थों का कथन नहीं होता क्योंकि भगवान ने इन अर्थो की पर्याय शब्द से ही देशना की है। (१२) कुछ लोग कहते हैं कि शास्त्र में एक गुण, वशगुण, अनन्तगुण श्याम इत्यादि रूप में रूपादि का प्रतिपादन किया है इससे प्रतीत होता है कि गुण पर्याय से विलक्षण है (१३) । किन्तु गुण शब्द के बिना मी पर्यायविशेष के संख्यान का वह बोधक है । 'इतना गुना है' इसमें जो गुण शब्द का प्रयोग होता है वह संख्या-शास्त्रोक्त धर्म के लिए है न कि पर्याय से भिन्न गुण नामक वस्तु के लिए है (१४) । जैसे दश संख्या में और दशगुणित एक में दशत्व समान ही होता है, गुण शब्द का प्रयोग करने से कोई अतिरिक्त अर्थ नहीं निकलता । उसी प्रकार जहां अन्यत्र भी गुण शब्द का प्रयोग है वहां भी उससे कोई अतिरिक्त ( गुणात्मक) अर्थ नहीं ग्रहण किया जा सकता ॥ १५॥ सौ-द्रव्य पर्ययसंज्ञितावन्त्रय - व्यतिरेको, अन्योऽन्याप्तितो हेतोः भेदाभेदवृत्यैव= एकान्त भेदाभेदनियतसंघन्धन्यावृत्तया जात्यन्तरात्मिकया वृत्यैव, वस्तु यथास्थितधीव्यपदेशनिबन्धनम्, अन्यथाऽन्योन्यव्याप्त्यव्यवहारस्यैव तत्र दुर्घटत्वात् ||३१|| द्रव्य और पर्याय शब्द से वाच्य अन्वय और व्यतिरेक में परस्पर व्याप्ति है प्रर्थात् पर्याय surance नहीं होता और द्रश्य पर्यायानात्मक नहीं होता, इसीलिए मेदाभेव वृत्ति, जो एकान्त भेद और एकान्त प्रभेद में नियत सम्बन्ध से भिन्न प्रत्य जातीय है, उसीके द्वारा वस्तु अपनी यथार्थ स्थिति के अनुसार बुद्धि और व्यवहार का निमित्त होती है । यदि द्रव्य और पर्याय में भेदाभेद सम्बन्ध न माना जायगा तो उनमें परस्पर व्याप्तता के व्यवहार की उपपत्ति न होगी ।। ३१ ।। एतदेव विशदतरमाह - भूलम् - नान्योऽन्यव्याप्तिरेकान्तभेदेऽभेदे च युज्यते । अतिप्रसङ्गादैक्याच्च शब्दार्थानुपपत्तितः ।। ३२ ।। अन्योन्यव्याप्तिः=अन्योन्यव्या सत्यशब्दार्थः, एकान्तभेदे, अभेदे च एकान्ताभेदे यथा दशसु दशगुणे चेकस्मिन् दशत्वं सममेव । अधिकेऽपि गुणशब्दे तथैवैतदपि द्रष्टव्यम् । १५ ।।

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