Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 7
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 227
________________ स्या० क० टोका एवं हिन्दी विवेचन ] २१३ बच्छेदेन वर्तेते, ज्ञायते चः यथा वृक्षे मूलशाखाद्यवच्छेदेन संयोग-तदभावों, तदिह घटे घटत्वावच्छेदेन नीललावच्छिन्नभेदो वर्तता, ज्ञायतां वा, तदभावस्तु किमवच्छेदेन ? इति निरस्तम, अन्योन्यव्याप्तयोस्तयोर्देश भेदेनाऽवृसारपि द्रव्यार्थता-पर्यायार्थतारूपभेदेनोपपत्तेः, यथेदत्वद्वित्वाभ्यामेकल्य-द्वित्वव्योः । विचित्ररूपत्वाश्च वस्तुनी नयभेदेन विचित्रा प्रतीतिः, यथा शाखावच्छेदेन संयोगः, तदभावश्च मूलादिनानावच्छेदेन तथा घटे नीलभेदोऽपि घटत्वावच्छेदेन, तदभावस्तु तत्तद्वयक्तित्यादिनानावच्छेदेन । 'एकप्रतियोगितावच्छेदकावच्छिन्नभेदतदभाक्योविरुद्धाधिकरणतावच्छेदकावच्छेदेन धृत्तित्वनियमस्त्वसिद्धः, विरुद्धत्वस्थले विभिन्नस्वस्यैव लाघवेन निवेशीचित्यात्' इत्यपि नयविशेषानुरुद्धं शुद्धमनुजानीमः । [व्यतिरेक व्याप्ति में व्याप्याप्रसिद्धि दोष का निवारण ] यदि यह कहा जाय कि व्यक्तिरेकव्याप्ति में व्याप्य की प्रसीजि नहीं होगी, क्योंकि प्रतियोगो के प्राश्रय में उसका अभाव नहीं होता। कहने का आशय यह है कि साधन में साध्य की व्याप्ति तभी ज्ञात होती है जब दोनों कहों एक दृष्ट हो, जैसे पाकशाला में वह्नि और धम एक साथ दृष्ट होने से हिच्याप्य धूम को प्रसिद्धि होती है, किन्तु जो साध्य और सावन कहीं एकत्र हष्ट नहीं होते उनमें व्याप्ति नहीं हो सकता । अतः नीलके भेट- उभय को साध्य करने पर उक्त उमथ कही एकत्र दृष्ट न होने से सामानाधिकरण्य में उसकी व्याप्ति की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि साध्यव्यतिरेक में साधनध्यतिरेक काव्याप्तिग्रह जिन अधिकरणों में होता है उनमें 'साध्य और साधन का अस्तित्व नहीं होता"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि जिस रूप से जहां प्रतियोगी रहता है वहाँ उस रूप से ही उसका अभाव नहीं होता, रूपान्तर से उसका अभाव होने में कोई बाधा नहीं होतो, प्रतः नील भेद जिस रूप से जहाँ है उस रूप से वहां नील का प्रभेद न होने पर भी अन्य रूप से उसका अमेव रह सकता है। [ द्रव्य-पर्यायात्मना भेदाभेद का उपपादन ] इस सन्दर्भ में कुछ लोगों का यह कहना है कि एक ही अधिकरण में प्रतियोगी और अभाव भिन्न-भिन्न अवच्छेचक द्वारा रह सकते है और ज्ञात हो सकते हैं। जैसे एक ही वृक्ष में शाखा में संयोग और मूल में संयोगाभाव रहता है और ज्ञात होता है। अतः घट में घटत्वावच्छेवेन मोल का भेव रह सकता है और ज्ञात हो सकता है किन्तु अन्य अवच्छेद क न होने से उसमें नील भेदाभाव नहीं रह सकता है और न ज्ञात हो सकता है। किन्तु यह कहना अनायास खण्डित हो जाता है, क्योंकि नील भेद और नीलामेद परस्पर ध्याप्त होते हैं। अतः देशमेव से उनका अस्तित्व न होने पर भी प्रध्यार्थता और पर्यायार्थता रूप के भेद से उन दोनों को उपपत्ति हो सकती है. अर्थाद द्रव्यात्मना नील का अभेद और पर्यायात्मना नील का प्रभेद दोनों एक साथ रह सकते हैं। यह ठीक उसी प्रकार है जैसे एकत्व और द्वित्व, इदन्त्व और द्विस्व रूप से एक ही में 'अयमेक:-इमो द्वौ' इस रूप में रहते हैं और प्रतीत होते हैं। सच तो यह है कि वस्तु का रूप विचित्र है, नय क्षेत्र से उसकी विचित्रता प्रतीत होती है जैसे, वृक्ष में शाखावच्छेदेन संयोग और मूल अन्तदेश आदि विभिन्न देशावच्छेदेन संयोग का अमाव रहता है उसी प्रकार घट में घटत्वावच्छेदेन नील भेद और घनिष्ठ तत्सद्व्यक्तित्व आदि

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