Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 7
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 211
________________ स्याका टीका एवं हिन्दी विवेचन ] १९७ गीतार्थे साचात् , अगीतार्थे च स्वाश्रयपारतव्येण हेतुत्वम् । निश्यतस्तद्गतफले तद्गताध्ययसायस्यैव हेतुत्वेऽपि गीतार्थापेक्ष एवागीनाथस्य प्रतिक्षणविलक्षणस्तथाभूतपरिणामा, नान्यथा । प्रकाशकमपेक्ष्यैव हि प्रकाश्यः प्रकाश्य(१श)स्वभावो न त्वन्धकारमाकाशादिकं वेति । एवं चापवादिक एकाकिविहारविधिरपि गीतार्थमपेक्ष्येव, न त्वगीतार्थम , तस्य गीतार्थपरतन्त्रस्यैव कर्ममात्रेऽधिकारित्वादिति विवेचितमेतदध्यात्ममतपरोक्षायाम् । [सम्यग्दर्शनमूलक निर्जरा के अभाव की शंका का उत्तर ] यदि यह शंका की जाय कि-'उक्त श्रद्धानधारियों में जिनवचन में हचिसम्पन्न होने के आधार पर सम्यक दृष्टि का व्यवहार सम्भव होने पर भी उन्हें सम्यफदर्शनमूलक निर्जरा का लाभ न होगा'तो यह ठोक नहीं है। क्योंकि, उक्त श्रद्धानधारियों को यद्यपि यह निर्जरा नहीं प्राप्त हो सकती जो नय-निक्षेप आदि निश्चय से निष्पन्न सम्पूर्ण सूत्रों के अर्थबोध, उससे साध्य प्रवचन में विशिष्ट रुचि, एतत्स्वभाववाले भाव सभ्यत्व से उपलब्ध होती है। तथापि, द्रव्यसम्यक्त्व भावसम्यक्त्व का साधक होता है और उक्त श्रद्धानधारियों में व्यसम्यक्त्व है इसलिए मार्गानुसारी प्रयबोध से संगस रुचि विद्यमान होने से सम्पन्न होने वाली निर्जरा का लाभ उनको होने में कोई बाधा नहीं है । यह ध्यान देने योग्य है कि ज्ञान दर्शन और चारित्र को मिलित रूप में ठीक उसी प्रकार मोक्ष का कारण बताया गया है जिस प्रकार पालकी होने वाले मनुष्यों में मिलित रूप से पालकी के बहन की कारणता होती है । अतः अगीतार्थ । -सूत्रार्थ के सम्याबोध से शून्य अपरिपक्व ) साधकों में जान-दर्शन-चारित्र का मिलित अस्तित्व न होने से उनका मोक्ष न हो सकेगा। तथापि यह कहना होगा कि अनेकान्त का निश्चयात्मक ज्ञान गीतार्थ ( यानी सूत्राथ के सम्यग्ज्ञाता) साधक के मोक्ष का साक्षात् हेतु होता है और अगीतार्थ साधक के मोक्ष का स्वाश्रय को परतन्त्रता द्वारा हेतु होता है। अर्थात् प्रगीतार्थ, गीतार्थ के सहयोग से मोक्ष की प्राप्ति करता है । [गीतार्थ के ज्ञान से अगीतार्थ को मुक्तिलाभ कैसे ?] निश्चयनयानुसार यपि फल और अध्यवसाय में सामानाधिकरण्य से ही कार्यकारणभाव है, इसलिए गीतार्थ के अनेकान्सज्ञान से प्रगीतार्थ को मोक्ष प्राप्त करने के विधान का भौचित्य आपाततः नहीं प्रतीत होता, तथापि यह व्यवस्था मान्य है कि गीतार्थ की अपेक्षा रख करके ही प्रगीतार्थ में प्रतिक्षा परिणमन के क्रम से अनेकान्त जानात्मक विलक्षण स्वभाव की सिद्धि होती है. अन्यथा नहीं। अतः अगीतार्थ के सन्दर्भ में मोक्षरूप फल और अनेकान्त निश्चयरूप हेतु की उक्तरीति से एकनिष्ठता (=सामानाधिकरण्य) उपपन्न हो जाती है। क्योंकि प्रकाशक की अपेक्षा से ही प्रकाश्य वस्तु का प्रकाश स्वभाव उपान्न होता है न कि अन्धकार और आकाश प्राधि को अपेक्षा से। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि अपवादरूप में एकाकी विहार करने का आदेश गीतार्थ के लिए ही है प्रगीतार्थ के लिए नहीं, क्योंकि उसे गोतार्थ को अपेक्षा रख करके ही कर्ममात्र में अधिकार प्राप्त है। इस बात का विवेचन अध्यात्ममतपरीक्षा नामक ग्रन्थ में विशद रूप से किया गया है। एवं 'गच्छति-तिष्ठति' इत्यादौ, 'दहनाद् दहनः-पचनात पचनः' इत्यादौ, 'जीवद्रव्यमजीवद्रव्यं चेत्यादाप्यन्वयव्यतिरेकच्याप्तिर्भावनीया, गतिस्थित्यादिपरिणतस्याप्यूर्ध्वगतिभृतल

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