Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 7
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 213
________________ स्या० क टीका एवं हिन्दी विवेचन ] १९ दहन (अग्नि) आदि में भी दाह आदि परिणाम के पोग्य काष्ठादि द्रव्य को अपेक्षा से ही वाहकता होती है, उसके अभाव में दाहकता नहीं होती। उदक आदि द्रव्य जो दहन से भिन्न है वह यद्यपि स्वयं हो अदहनरूप है. तथापि पृथ्वी आदि बहनभिन्न द्रव्य से व्यावृत्त होने के कारण कथश्चित् अवहन रूप नहीं भी होता है । इस स्थिति में यह शङ्का उचित नहीं हो सकती कि- स्वयं अवहन को अन्य अदहन से भिन्न होने के कारण अदहन न होने की दशा में अवहन वर्ग में उद. आदि और पृथ्वी श्रादि का परिगणन उचित नहीं है क्योंकि स्वीकृत सिद्धान्त का विरोध न करके ही भजना-वर्गीकरण की उपपत्ति होती है। ओव और अजीव तव्य भी क्रमश: कुम्भ आदि और जीव को अपेक्षा जीवभिन्न और अजीवभिन्न होते हैं, क्योंकि जीव यदि कुम्भ आदि की अपेक्षा भी जीय होगा और अजीय द्रव्य जीव को अपेक्षा भी अजीव होगा तो यह तभी सम्भय हो सकता है जब जीव और कुम्भ आदि में तथा अजीव और जीध में अभिन्नता हो और ऐसा होने पर समी वस्तुओं में सर्वात्मकता की धापत्ति होगी। जैसा कि सम्मति सूत्र की गाथाओं में स्पष्ट कहा गया है कि-"कुछ लोग गति में परिणत द्रव्य को गति होने पर नियमेन गतिमान द्रव्य मानते हैं किन्तु वह भी गतिपरिणत द्रव्य ऊध्वंगतिक होने पर अई. गति अपेक्षा हो सम्भव होता है। क्योंकि ऊध्र्वगति अभिमुख क्रिया होने पर ही उर्य गतिमत्ता होती है अन्यथा यह नहीं होती। इस प्रकार दहन आदि द्रव्य भी वाहकता आदि गुण के द्वारा ही दहन आदि संज्ञा को प्राप्त करते हैं। जिस द्रव्य और अद्रव्य का जिस प्रपेक्षा से प्रतिषेध होता है उस अपेक्षा से क्रम से वह अबव्य और द्रव्यरूप होता है । स्पष्ट है कि कुम्भ जीवद्रव्य नहीं होता, जीव भी कुम्भद्रव्य नहीं होता, इसलिए दोनों ही परस्परापेक्षया अद्रव्य होते हैं।" नन्वेवमजीवो जीवापेक्षया नाऽजीव इति जीवोऽपि स्यात् । नैवम् , अभावपरिणतेः परापेक्षत्वेऽपि भावपरिणतेः स्वायेक्षत्वात् । नन्वेवं जीवदेशो नाजीवो नवा संपूर्णजीव इति नोजीयः स्यात् , 'स्यादेवेति चेत् , कथं त्रैराशिकनिरासः स्यान ? इति चेत् ! सत्यम् , एकान्तमाश्रयत एव त्रैराशिकस्य नयान्तरेण निरासा , सैद्धान्तिकैस्तु नयमतभेदेन नथाभ्युपगमात् । तथाहि-'जीवः, नोजीवः, अजीवः, नोऽजीवः' इत्याकारिते (A) नैगमदेश-संग्रह-व्यवहार-जे सूत्रसाम्प्रतसमभिष्टाः (१) जीवं प्रत्यौपशमिकादिमावग्राहिणः पश्चस्वपि गतिषु 'जीवः' इति जीवद्रव्यं प्रतियन्ति, (२) नोजीवः' इति च नोशब्दस्य ३ सनिषेधार्थपक्षऽजीवद्रव्यमेव, । देशनिषेधार्थपक्षे च देशस्याऽप्रतिषेधाजीवस्य देश-प्रदेशो, (३) 'अजीवः' इति चाऽकारस्य सर्वग्रनिषेधार्थत्वान् पयुदासाश्रयणाञ्च जीवादन्यं पुदलद्रव्यादिकमेव, (४) 'नो अजीवः' इति च । सर्वप्रतिषेधाश्रयणे जीवद्रव्यमेष, b देशप्रतिषेधाश्रयणे चाजीवस्यैव देश-प्रदेशौ । (B) एवंभूतस्तु (१ जीवं प्रत्यौदायिकमावग्राहको 'जीवः' इत्याकारिते भवस्थमेव जीवं गृह्णाति, न तु सिद्धं, तत्र जीवनार्थानुपपत्तेः, आत्म-सत्त्वादियदार्थोपपत्रात्म-सस्वादिरूपस्तु सोऽपि स्यादेश । (२) 'नोजीवः' इति चाजीवद्रव्यं, सिद्धं या; (३) 'अजीवः' इति चाजीवद्रव्यमेव (४) 'नोअ

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