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[ शास्त्रषार्त्ता० स्त० ७ इलो० ३०
जीव:' इति च भवस्थमेव जीवम्, देशप्रदेशौ तु न स्वीकुरुते संपूर्ण वस्तुग्राहित्वादयम् । इत्यधिकं नयरहस्ये ।
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[ अजीव जीव वन जाने की आपत्ति का निवारण ]
यदि यह शङ्का की आय कि अजीव को जीव की अपेक्षा अजीव न मानने पर, अजीव जब जीव को अपेक्षा प्रजीव न होगा तो वह जीव भी हो जायगा। क्योंकि जो प्रजोव नहीं है उसका जीवात्मक होना न्याय प्राप्त है' - किन्तु यह शङ्का उचित नहीं है क्योंकि अजीव न होना अभावात्मक परिणति है, और नियम यह है कि प्रभावात्मक परिणति तो पर की अपेक्षा होती है किन्तु भावात्मक परिणति तो स्वयं अपनी ही अपेक्षा से होती है। अतः अजीवद्रव्य जीव की अपेक्षा अजीव न होने पर भी अजीव जीव नहीं हो सकता, क्योंकि जीय होने के लिए सहज भाव से ही जीव होना आवश्यक है ।
[ त्रैराशिक मत की नोजीव की मान्यता के निवारण का आशय ]
इस पर यदि यह शङ्का की जाय कि जीव का एक देश' अजीव नहीं होता और सम्पूर्ण जीव भी नहीं होता अतः वह नोजोब हो जायगा और इस आपत्ति को स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि इसे स्वीकार कर लेने पर त्रैराशिक का अर्थात् जीव प्रजीव-नोजीष तीन राशि मानने वाले रोहगुप्त निलय का निराकरण नहीं हो सकेगा तो इसके उत्तर में टीकाकार का कहना है कि जोख के एक देश का 'नोजीव' होना ठीक ही है, ऐसा मानने पर त्रैराशिक के निराकरण की अनुपपत्ति की चिन्ता करना उचित नहीं है क्योंकि एकान्तवाद का आश्रय लेने पर ही नयान्तर से त्रैराशिक का निराकरण होता है । किन्तु सिद्धान्तो नयमत के भेद से तीन राशि को स्वीकार करते ही हैं । [ जीवादि विषय में सात नय की मान्यता ]
जैसे 'जीव: नोजीवः' 'अजीव : नोजोष:' इस प्रकार के शब्द प्रयोग में (A) नैगम, संग्रह व्यवहार, ऋजुसूत्र, साम्प्रत और समभिरूढ ये छ तय जीव के श्रीपशमिक श्रादि भावों का ग्राहक होने से पांचों गतियों में ( १ ) जोन: इस रूप में जीव द्रव्य को स्वीकार करते हैं और ( २ ) नोजोव: इस प्रयोग में नो शब्द को सर्वनिषेधात्मक मानने पर अजीव द्रव्य को ही ग्रहण करते हैं और b नोशब्द को देशनिषेधात्मक मानने पर, देशविशेष का प्रतिषेध न होने से जीव के देश और प्रदेश को ग्रहण करते हैं । और (३) अजीय: इस शब्द प्रयोग में प्रकार के सर्वप्रतिषेधात्मक होने से तथा पर्युदास का आश्रयण करने से जीव से भिन्न पुद्गल द्रव्य आदि को प्रहरण करते हैं (४) मोअजीवः इस प्रयोग में नो शब्द के सर्वप्रतिषेधरूप अर्थ का श्राश्रय करने पर जीव द्रश्य का ही ग्रहण करते हैं और b वेशप्रतिषेधरूप अर्थ का आश्रय करने पर अजीव के ही देश और प्रदेश को ग्रहण करते हैं ( 8 ) किन्तु एवंभूत नय जीव के औदयिक भाव का ग्राहक होने से ( १ ) जीवः इस प्रकार के प्रयोग में भवस्थ जीव का ही ग्राहक होता है, सिद्ध जीव का ग्राहक नहीं होता, क्योंकि सिद्ध में जीवन अर्थ की उपपत्ति नहीं होती। आध्मा, सत्य आदि पदार्थ की उपपत्ति होने से सिद्ध आश्मा और सत्य प्रावि स्वरूप होता ही है। (२) नोजीवः इस प्रयोग में अजीव द्रव्य अथवा सिद्ध का ग्राहक होता है । और (३) अजीवः इस प्रयोग में अजीव द्रव्य का ही ग्राहक होता है । ( ४ ) नोअजीवः इस प्रयोग में भवस्थ जीव का ही ग्राहक होता है। देश और प्रदेश उसे स्वीकार नहीं है क्योंकि सम्पूर्ण वस्तु का
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