Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 7
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 194
________________ १८० [ शास्त्रमा स्त०७ श्लो० २४ है कि वस्तु की अनेकान्तरूपता यस्तु का सापेक्ष पर्याय है। अतः उसे वस्तु का निरपेक्ष रूप बताना तो असंगत हो सकता है किन्तु उसे उसका अपना रूप बताना कथमपि असंगत नहीं हो सकता। वस्तु की आपेक्षिक पर्यायरूपता का विवरण करते हुए कुछ विद्वानों द्वारा जो यह कहा गया है कि-'शब्दार्थ सापेक्ष होता है वस्तु सापेक्ष नहीं होती वह कथन मी तमो समीचीन हो सकता है जब बस्तु अशब्दार्थ हो तथा शब्द कल्पनामात्र हो, किन्तु यह बात सिद्ध नहीं है। [ केवल धर्मभेद मानने पर पिता-पुत्र आदि प्रतीतियों की अनुपपत्ति ] जिन विद्वानों का यह मत है कि पितृत्व- पूत्रत्व आदि धर्म ही निरूपक भेद से भिन्न होते हैं किन्तु जिस धर्मों में ये धर्म प्रतीत होते हैं वह एकरूप ही होता है ।' उनकी दृष्टि में प्रमुक व्यक्ति अमुक की अपेक्षा पिता है और अमुक की अपेक्षा पिता नहीं है ऐसी प्रतीतियों का अनुरोध यानी समर्थन नहीं हो पाता, साथ ही ऐसा मानने वालों को यह भी विचार करना चाहिए कि धर्म-मेध की प्रतीति का उपपावन यदि धर्म और उसके अभाव के अवगाहन द्वारा किया जायगा तो 'घटः पटोन' ऐसी प्रतीतियों के सम्बन्ध में भी यह कहा जा सकेगा कि यह प्रतासि एफ पदार्थ में घटत्वरूप धर्म और पदत्यरूप धर्म के अभाव का अवगाहन करतो है न कि घटरूप धर्मों में घटत्व धर्म एवं पट रूप धर्मों के भेद को विषय करती है, फलतः भेद की चर्चा ही समाप्त हो जायगी। [चित्राकारज्ञानवाद में चित्राकार अर्थ की आपत्ति ] जिन विद्वानों ने यह माना है कि-'जैसे नगर, त्रैलोक्य आदि की अतिरिक्त सत्ता नहीं है किन्तु नगर एवं त्रैलोक्य नाम की वस्तु के बिना ही नगराकार और त्रलोक्याकार केवल ज्ञानमात्र होता है उसीप्रकार पिता-पुत्र आदि को भी अतिरिक्त सत्ता नहीं है किन्तु पिता-पुत्र प्रादि रूप में ज्ञानमात्र होता है। फलतः ज्ञानाकार रूप में ही उनको सत्ता है बाह्य सना नहीं है। ऐसे विद्वानों ने चित्र यानी अनेकात्मक अर्थ की अनुपपत्ति से त्रस्त हो उसे स्वीकार न कर चित्र अनेकात्मकज्ञान को स्वीकार किया है। अतः ऐसे विद्वान उन मनुष्यों को श्रेणि में आते है जो व्याघ्र के भय से भागकर कुए में गिर पड़ते हैं। फलतः चित्राकार ज्ञान मानने और चित्राकर अर्थ न मानने में कोई औचित्य नहीं प्रतीत होता। एवं चानुमानादिनापि नैकान्तसिद्धिः, अध्यक्षवाधितेऽर्थेऽनुमानादिप्रमाणप्रवृत्तेः । किञ्च, साधम्यतः परः साध्यं साधयेत् , वैधयंतो वा १ । उभयथापि तत्पुत्रत्वादेगमकत्व प्रसङ्गः, प्रकरणसम-कालात्ययापदिष्टयो हे स्वाभासत्वाऽभावेनाऽवाधकत्वात् , निश्चितस्वसाध्याविनाभूतहेतपलम्भस्यैव साध्यधर्मिणि साध्यप्रतिपतिरूपत्वेन तयोस्तदप्रतिपन्थित्वात् । न च यथा तयात्राऽगमकत्वं तथा ममापीति शडनीयम् , ममाक्षिप्तपरस्परस्वरूपाजहवृत्तिसाधधम्यस्वभावनिबन्धन.रूप्यनिश्चयाभावेन तस्याऽगमकत्वात् , परस्य च तथाऽनभ्युपगमात् । [अनुमानादि से भी एकान्तसिद्धि अशक्य ] । उक्त रीति से अनुमान आदि से भी एकान्त की सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि जो अर्थ प्रत्यक्ष बाधित होता है उसमें अनुमान आदि प्रमाणों को प्रवृत्ति नहीं होती। अनुमान के विरुद्ध एक बात और है वह यह कि एकान्तवादी को वस्तु की एकान्तरूपता का साधन साधर्म्य अथवा वैधH से ही करना होगा किन्तु दोनों ही पक्षों में तत्पुरत्व आदि धमों में

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