Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 7
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 175
________________ स्माता एवं हिमी बि. अथवा, सस्मिन्नेव मध्यावस्यास्वरूपे पर्तमाना-ऽयर्वमानक्षणरूपतया सदसत्यात प्रथमप्रितीयों | ताभ्यां युगपदनभिधेपन्चात् पतीयः । यदि वर्तमानक्षणपन पुर्षों तरक्षणयोटः स्यात् । पर्वमानषणमात्रमेषासौ प्राप्ता, पूर्वोत्तरयोसमानताप्राप्तः । न च वर्तमानक्षणमात्रमपि पूर्वोत्तरापेक्षस्य, तदमावेऽभावात् । अथातीताऽनागसक्षणपद् वर्तमानपणरूपतयाप्पघटः, सर्वदा तस्याभावः स्याद । एकान्सपशेऽप्ययमेव दोष इत्यसम्पादनाच्यः । [५-अगभेद से मंगत्रय का उपपादन ] अपना यह कहा जा सकता है कि-मम्यावस्मापमान घर भी मानवजारममा सस पोर पूर्वोत्तरसारममा असत् होता है। इसी सत्वाऽसरक को बताने के लिये प्राम-द्वितीय भङ्गकी और इन दोनों की पुगपर प्रमभिधेयता बताने के लिये तृतीय भङ्ग की प्रवृत्ति होती है। मामाघ यह है कि मध्यावस्थापन वर्तमामघट भी वह वर्तमानक्षगरूप में ही सस होता है। पूर्वोत्तरक्षणरूप में सत नहीं होता । स्योंकि पवि पर्तमानक्षणात्मक घट को पूर्वोत्तरक्षणरूप में भी सत् माना जाय तो घट बसमानमणमात्रात्मक हो जायगा क्योंकि पूर्वोत्तरक्षणरूप में वर्तमानक्षणमात्रात्मक वस्तु का आधुपगम तभी हो सकता है पूर्वोत्तरक्षण भी वर्तमानक्षणात्मक हो; और सब बात तो यह है कि पसंमानभरपसे सब वस्तु को पूर्वोत्तरमणकप से सत् मानने परबह पसंमानक्षणरूप से भी सत् नहो सकेगी क्योंकि उस पक्ष में उक्त रीति से पत्तिरक्षण का प्रभाव होने से तस्मापेक्षहोने के कारणमामक्षण का भी मभाष हो जायगर । इसीप्रकार अतीत प्रनागतक्षण में जैसे घर वसंमानणरूप से यह मही किन्तु अघट होता है उसीप्रकार यदि मानक्षग में भी घर पर होगा तो पट का सर्वमा प्रभाव हो जायगा। प्रतः उसे वर्तमानमाण में सत् मामला साबश्यक है। इसप्रकार घटास्मयातु में सापेक्ष सत्वासारव की सिद्धि निविसाध है । को दोष पसमामाण में सत् बहतु को पूर्वोसरमणरूप में मी सत् और पूर्गेतर क्षण रूप से बसमान में असत् को पर्समानमणक्य से भी असत मानने पर प्रसत होता है वह वास्तु के सर्वान रमना मत्त्व और प्रसव के एकाम्स पक्ष में मी प्रसक्त होता है। प्रतः एकान्त मस्तु सक्षम होने से उस पल में बस्तु में सर्वपा समाव की प्रसति होती है। अथवा, क्षणपरिणतिरूपे घटे लोचनजप्रतिपचिबियपस्थाऽविपपत्ताभ्यां स्वरूप-पररूपाम्पामाध-द्वितीयो। ताम्या युगपदादिष्टस्तृतीयः । यदीन्द्रियान्तरजप्रतिपत्तिविषयत्वेनापि पटः स्यात् , इन्द्रियसंकरः स्यात् । यदि च चक्षुर्जप्रतिपत्तिविषयत्वेनापि न परः, ताई वस्यालपवप्रसविनः । एकान्तपझेऽप्ययमेव दोष इत्यसवादवाच्यः । [६-मित्र भिम इन्द्रिय की अपेक्षा भंगप्रयनिरूपण ] अथवा यह कहा जा सकता है कि क्षणपरिणतिस्प-बमास्यायो घर का मेश्रवन्यप्रतिपत्तिविषयस्यत्व रूप है और पपइग्नि मनाम प्रतिपतिविषय पर रूप है । मतः उस पद का सकप से सरण मौर पररूप से प्रसारण का प्रतिपावन करने के लिये प्रथम-हिसोपभङ्ग की प्रवृत्ति होती है। और वोनों रूपों से उसको युगमा विवक्षा होने पर उसकी गोनों रूपों से पुरापार प्रवाश्यता बताने के लिये तृतीय

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