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[ शास्त्रवास्ति०७श्लो० २३
पर्याय इन दोनों रूपों से घट का निर्देश होगा तो घट अबक्तव्य होगा क्योंकि अभिन्न तथा उन दोनों रूपों से घट का निर्देश करने के लिये उम दोनों को अभिन्नता आवश्यक है और वह दो रूप से सिद्ध हो सकती है जैसे, व्यञ्जन का अनुवाद कर घटार्थपर्याय का विधान किया जाय अथवा घटार्थपर्याय का अनुवाद कर व्यञ्जनपर्याय का विधान किया जाय-किन्तु ये दोनों ही पक्ष समीचीन नहीं है क्यों. कि यदि व्यञ्जनपर्याय का अनुयाव का मापय मानिधान किया जाए तो ज्यात घट में अन्य समस्त घटार्थपर्यायरूपता की प्रसक्ति होगी जिस के फलस्वरूप नामस्वरूप व्यम्जनपर्याय एवं घटास्मक अर्थपर्याय में भेव का अभाव हो जाने से घटनाम एवं घट में भेदष्यवहार का लोप हो जायगा। अर्यात घट नाम यह घट का है ऐसा व्यवहार न होकर घट नाम ही घट है इस व्यवहार को प्रापत्ति होगी।
इसीप्रकार यदि अर्थपर्याय का अनुवाद कर व्यञ्जन पर्याय का 'घट यह घट नाम है' इस रूप में विधान किया जायगा तो उसका पर्यवसान सिद्ध घट विशेष का अनुवाद कर घटत्त्व सामान्य के विधाम में होगा। क्योंकि 'घट' नामरूप व्यञ्जनपर्याय घटत्वसमनियत होता है । क्योंकि तत्तनामतादात्म्यापन्न अयं तत्सनाम के प्रवृत्तिनिमित्त का आश्रय होता है। अतः व्यञ्जनपर्याय के विधान का पर्यवसान घटत्वसामान्य के विधान में न्यायप्राप्त है और इस विधान के फलस्वरूप समो घटों में अकार्यस्वावि का प्रसङ्ग होगा। क्योंकि जब स्थापनादि सभी घटों में एक सामान्यघटत्व होगा तो तववच्छिन्न के प्रति स्थापनादि किसी भी घट की सामग्री को ध्यतिरेक व्यभिचार के कारण उत्पादक नहीं माना जा सकेगा, फलतः घट का प्रभाव प्रसक्त हो जाने से तद्वाधक पक्ष का संकेत सम्भव न होने से घट अवाच्य हो जायगा । अथवा यह भी कहा जा सकता है कि घट नाम है इस विकल्प में घट अनेक व्यक्ति स्वरूप होने से उन सभी के साथ घट नाम का अभेद संभवित नहीं है, फलतः घटाचंपर्याय को घटस्व सामान्यरूप लेकर उसमें घट नाम के अभेद का विधान करना होगा । तात्पर्य घटस्वसामान्य यह घट नाम हुआ फलत. घट नाम नित्यघटस्वसामान्यरूप बन जाने से नित्य हो जाएगा यानी अकार्य-अजन्य हो जाएगा। अगर इष्टापत्ति की जाए तब घट नाम से वाच्य घटत्व सामान्य ही हुआ, घट नहीं हुआ इस प्रकार घट अवाच्य हआ। किन्तु अनेकान्तपक्ष में घट सर्वथा अवाच्य नहीं होगा क्योंकि वह अर्थपर्यायात्मक रूप से लव और ध्यानपर्यायात्मक पर रूप से असत होता है अतः एक एक रूप से वाध्य होगा किन्तु उभय रूपों से युगपत् विवक्षा की पपेक्षा से ही अवाच्य होगा ॥११॥ ___यदा, सत्यमर्थान्तररूपांपररूपं, तस्य विशेषवदेकत्वादनन्वयिरूपता, अत एच न तद् वाच्यम् , अन्त्यविशेपवत् । अन्त्यविशेषस्तु स्वं रूपं सोऽप्यवाच्यः, अनन्वयात् । प्रत्येकाऽवक्तव्याभ्यां ताभ्यामादिष्टो घटोऽवक्तव्यः । अनेकान्ते तु कथश्चित तथा ।
[१२-सन्वादिरूप से भंगत्रय ] अथवा वस्तु का स्वतोग्यावृत्त अन्त्य विशेष यह स्वरूप है, और सत्त्व यह पर रूप है-अर्थान्तर रूप है और वह वस्तु के अन्तिम व्यावर्तक वस्तु के प्रसाधारणधर्म के समान होने से अर्थात् एकव्यक्ति मात्रवृति होने से अनन्वयी है. अर्यात अनेकान्वयी अनेकानुगत नहीं है । और इसीलिये यह अन्त्यधिशेष के समान वाच्य नहीं होता, क्योंकि गोत्व-अश्वत्वादि अनेकान्षयी धर्म ही पद का वाच्यार्थ होता है । यदि अनन्ययी धर्म को पद का वाध्यार्थ माना जायगा तो व्यवहार द्वारा एक एक ध्यक्ति में ही पद की वाच्यता का पर्यवसान हो जाने से सत् सत् व्यक्ति का हो ग्रह होगा । प्रतः गृहीत.