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[शास्त्रात हो. १७
इस आक्षेप के संदर्भ में व्यायाकार का प्रत्युत्तर यह है कि नामादि की सर्ववस्तुष्यापकता का पक्ष स्वीकारने में कोई दोष नहीं है क्योंकि जिन प्रमिलाप्यथायों में तथा कोष और तम्य में मामादिनिःक्षेप की व्यारित में व्यभिचार दृष्ट होता हो व्याप्यक्षि में सन्नित्व का निवेश करने से सर्ववस्तु में नामादिमिक्षप की ग्याप्ति सम्भव हो सकती है। और इस प्रकार उक्तरोति से ज्याप्तिसम्भव के अभिप्राय से ही उस पुत्र में 'यत्र तत्र'पदों के संनिया में कोई प्रसङ्गति नहीं हो सकती। यहो पात तस्वार्थ सूत्र के टीकाकार श्री सिद्धसेनगगि ने इस प्रकार कही है कि-'यदि किसी एक प्रस्तु में नामाविनिःोपों में कोई निःक्षेप नहीं घट सकता. तो केवल इतने मात्र से वस्तु मात्र में सामारिनिःक्षेपों को व्याप्ति का अभाष नहीं हो सकता। इस कथन से यह संकेत स्पष्ट रूप से प्राप्त होता है कि जिस वस्तु में नामाबिनिःक्षेप सम्भव नहीं है-श्याप्यक्षि में उस वस्तु के भेद का निषा करके वस्तु में नामाधिनिःक्षेप की व्याप्ति का समर्थन किया जा सकता है।
[केव लिमज्ञारूप नामनिक्षेपवाला मत अरमणीय ] अन्य जन विद्वानों का समाप के समाधान मह महना है मिलायभायों में भी सामान्यरूप से नामनिःक्षेप का अभाव नहीं है क्योंकि केवली को उन भावों की भी प्रता होती है। अतः 'केबलीप्रशा' से मिप्य होने के कारण निरूपकात्यल्प से नाम का साम्य होने से केवलोप्रक्षा हो उमका नाम, एवं उस नामनिःक्षेप की प्रबत्ति उनमें भी होती है। अतः केवलिप्रमाविषया' स नाम की प्रवृत्ति उनमें भी होती ही है। ऐसा होने पर भी उन्हें अलभिला-ब इसलिये कहा जाता है कि अग्यवस्तुओं के समान उनका किसी लोकिक नाम से भभिलाय नहीं होता। इस प्रकार स्यजीस भी मतिय नहीं है, क्योंकि मावो ख्याविरूप औवपर्यायों का होने से मनुष्याविही यकीन हैं। सो प्रकार म्यनग्य भी प्रसिद्ध नहीं है क्योंकि घटादिपर्यायरुप औपचारिक घों का न होने से मासकाविही प्रपन्य है । इसप्रकार व्याप्यक्षि में अमभिलाप्य भाव, जीव लथा द्रष्य के मेद का निवेश न करने पर भी सर्ववस्तु में नामाविनिःक्षेपमनुष्य की व्याप्ति हो सकती है।"
किन्तु ग्यास्याकार के अनुसार यह मत रमणीय नहीं है क्योंकि व्याथिक नम की राष्ट से शवपुदगल होमाम है । अतः केवली प्रज्ञा को नाम कहकर अनभिलाप्य भावों में नामनिक्षेपको सम्भव प्रताना उचित नहीं है। इसीप्रकार मनुष्याधि को थ्यमोश्च और मत्तिकादि को दस्यतरप कहना भी उचित नहीं है क्योंकि मनुष्यआधि को ध्यजीव कहने पर बल सिद्ध हो मायजोय हो सकगे, क्योंकि एकमात्र से ही किसी उत्तरजीवपर्याय के हेतु नहीं होते । एवं मबादि को, औपचारिक प्रथ्य का तु - सोने से ध्यरूप मानने पर भावाव्य का उच्छेब हो जायगा, गोंकि कोई औपचारिक सूक्ष्म (नी) ऐसा नहीं है को प्रौपचारिक द्रव्यातर का हेनु न होता हो ।
[शुद्धजीवद्रव्य द्रव्यजीर है-यह मत भी स्कूल हैं। अन्य विद्वानों का मत है कि प्रज्ञा से कल्पित, गुण पर्यायों से शून्य शुश जीव ही रयजीव है। उनका प्रामाम यह है कि जीम में गुण मोर पर्याय तो संलग्न ही है किन्तु प्रशा से गुरणपर्यायों को अलग रख कर जीव की ऐसी एक शुद्ध अवस्या प्रशा से देखो आए कि जो गुण पर्याय से शून्य है. और यही गुणपर्यापयुक्त जोब का हेतु है । अत: जीव की वही अवस्था द्रष्यजीव है। किन्तु स्मात्याकार के अनु. सार यह कायम भी युक्तिसङ्गात नहीं है क्योंकि जोष के साथ गुणपर्यायों का लम्बरच अनादि है। अत: