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श्रावकप्रज्ञप्तिः
यथा-अतिथिसंविभागो नाम अतिथयः साधवः, साध्व्यः श्रावकाः श्राविकाच, एतेषु गृहमुपागतेषु भक्त्याऽभ्युत्थानासनदान- पादप्रमार्जन-नमस्कारादिभिरर्चयित्वा यथाविभव-शक्ति-अन्न-पानवस्त्रौषधादिप्रदानेन संविभागः कार्य इति (ध. वि. टीका ३-१८, पृ. ३५)। इस सबसे वाचक उमास्वाति के द्वारा श्रावकप्रज्ञप्ति के रचे जाने का संकेत मिलता है। पर इससे यह नहीं कहा जा सकता कि प्रस्तुत श्रावकप्रज्ञप्ति ही वाचक उमास्वाति के द्वारा रची गयी है। सम्भव है उनके द्वारा संस्कृत में कोई श्रावकप्रज्ञप्ति नामक ग्रन्थ रचा गया हो और वह वर्तमान में उपलब्ध न हो। अथवा तत्त्वार्थाधिगमसूत्र के सातवें अध्याय में जो श्रावकधर्म की प्ररूपणा की गयी है उसे ही श्रावकप्रज्ञप्ति समझ लिया गया हो।
प्रस्तुत श्रावकप्रज्ञप्ति के उमास्वाति द्वारा रचे जाने में अनेक बाधक कारण हैं जो इस प्रकार हैं
१. जैसा कि पाठक पीछे प्रतिपरिचय में देख चुके हैं, प्रस्तुत श्रावकप्रज्ञप्ति की दो हस्तलिखित प्रतियाँ हमारे पास रही हैं-एक ला. द. भाई भारतीय विद्यासंस्कृति मन्दिर अहमदाबाद की और दूसरी, जिसका लेखनकाल संवत् १५६३ है, भाण्डारकर ओरियण्टल रिसर्च इंस्टीट्यूट पूना की। इन दोनों ही प्रतियों के आदि-अन्त में कहीं भी मूल ग्रन्थकार के नाम का निर्देश नहीं किया गया है (पहली प्रति का अन्तिम पत्र नष्ट हो गया दिखता है)।
२. धर्मबिन्दु की टीका में जिस श्रावकप्रज्ञप्ति के सूत्र को उद्धृत किया गया है वह प्राकृत गाथाबद्ध इस श्रावकप्रज्ञप्ति में नहीं है। इतना ही नहीं, उस सूत्र में जो साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका को अतिथि कहा गया है वह मूल श्रावकप्रज्ञप्ति में तो सम्भव ही नहीं है, साथ ही वह उसकी हरिभद्रसूरि विरचित टीका में भी नहीं है। उसकी टीका में हरिभद्र सूरि के द्वारा ग्रन्थान्तर से उद्धृत एक श्लोक के
। अतिथि का लक्षण प्रकट किया गया है उसके अनुसार तो श्रावक और श्राविका को अतिथि ही नहीं कहा जा सकता। हाँ, तदनुसार उन्हें अभ्यागत कहा जा सकता है। इस प्रकार धर्मबिन्दु के टीकागत उक्त उल्लेख से प्रस्तुत श्रावकप्रज्ञप्ति उमास्वाति के द्वारा रची गयी सिद्ध नहीं होती।
३. वाचक उमास्वाति प्रायः सूत्रकार ही रहे दिखते हैं और वह भी संस्कृत में, न कि प्राकृत में। प्राकृत में न उनका कोई अन्य ग्रन्थ उपलब्ध है और न कहीं अन्यत्र वैसा कोई संकेत भी मिलता है।
४. उमास्वाति विरचित तत्त्वार्थाधिगमसूत्र के ७वें अध्याय में जिस श्रावकाचार की प्ररूपणा की गयी है, उससे इस श्रावकप्रज्ञप्ति में अनेक मतभेद पाये जाते हैं जो एक ही ग्रन्थकार के द्वारा सम्भव नहीं हैं। इन मतभेदों को आगे तुलनात्मक विवेचन में 'श्रावकप्रज्ञप्ति और तत्त्वार्थाधिगम' शीर्षक के अन्तर्गत देखा जा सकता है। वहाँ उनकी विस्तार से चर्चा की गयी है।
इस प्रकार का कोई मतभेद उमास्वाति विरचित प्रशमरतिप्रकरण में देखने में नहीं आता। उदाहरणार्थ तत्त्वार्थसूत्र में गुणव्रत और शिक्षापद का विभाजन किये बिना जिस प्रकार और जिस क्रम से दिग्वत आदि सात व्रतों का निर्देश किया गया है उसी प्रकार और उसी क्रम से उनका निर्देश प्रशमरति में भी किया गया है, जबकि प्रस्तत श्रावकप्रज्ञप्ति में उनका निर्देश गुणव्रत और शिक्षापद के रूप में भिन्न क्रम से किया गया है। यथा -
१. स्थूलवधानृत-चौर्य-परस्त्रीरत्यरतिवर्जितः सततम् । दिग्व्रतमिह देशावकाशिकमनर्थदण्डविरतिं च ॥ सामायिकं च कृत्वा पौषधमुपभोगपारिमाण्यं च। न्यायागतं च कल्प्यं विधिना पात्रेषु विनियोज्यम् ॥-प्रशमरतिप्रकरण ३०३-४। २. गुणव्रत और शिक्षापद के विभाजन के लिए देखिए टीका में गा. २८० और २९२ की उत्थानिका तथा गाथा २८०,
२८४, २८९, २८२, ३१८, ३१९, ३२१-३२२ और ३२५ ।