Book Title: Savay Pannatti
Author(s): Haribhadrasuri, Balchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 11
________________ प्रस्तावना इस प्रकार है-"॥ इति दिक्प्रदा नाम श्रावकप्रज्ञप्तिटीका ॥ समाप्ता ॥ कृतिः सितपटाचार्य जिनभद्रपादसेवकस्याचार्य हरिभद्रस्येति ॥छ॥ ॥ संवत् १५८३ वर्षे लिखितमिदं पुनं वाच्यमानं मुनिवरैश्चिरं जीयात् ॥ ॥छ॥ श्री स्तात् ॥ ॥श्रीः॥ ॥" विशेष-हमें खेद है कि इस प्रति से पाठभेद ले लेने पर भी वे प्रस्तुत संस्करण में दिये नहीं जा सके। कारण यह है कि उनकी पाण्डुलिपि स्व. डॉ. ए. एन. उपाध्ये के पास कोल्हापुर भेजी गयी थी, पर वह वहाँ से वापस नहीं मिल सकी। २. ग्रन्थ-परिचय जैसा कि मंगलगाथा के पूर्व उसकी उत्थानिका में टीकाकार के द्वारा सूचित किया गया है, प्रस्तुत ग्रन्थ का नाम सावयपनत्ती (श्रावकप्रज्ञप्ति) है। यह गाथाबद्ध ग्रन्थ प्राकृत भाषा में रचा गया है। गाथाओं की समस्त संख्या ४०१ है। इनमें कुछ गाथाएँ प्राचीन ग्रन्थान्तरों से लेकर उसी रूप में यहाँ आत्मसात् की गयी भी दिखती हैं (जैसे-३५-३७, ६८, ११६-१८, २२३, २९९, ३२९ और ३९०-९१ आदि)। जैसा कि ग्रन्थ का नाम है, तदनुसार उसमें श्रावकधर्म के परिज्ञापनार्थ बारह प्रकार के श्रावकधर्म की प्ररूपणा की गयी है। मंगलस्वरूप प्रथम गाथा में ही ग्रन्थकार ने यह निर्देश कर दिया है कि मैं प्रकृत ग्रन्थ में गुरु के उपदेशानुसार बारह प्रकार के श्रावकधर्म को कहूँगा। इस बारह प्रकार के धर्म का मूल चूँकि सम्यक्त्व है और उसका सम्बन्ध कर्म से है, इसीलिए यहाँ सर्वप्रथम संक्षेप में कर्म का विवेचन करते हुए प्रसंगवश उस सम्यक्त्व और उसके विषयभूत जीवादि तत्त्वों की भी प्ररूपणा की गयी है। पश्चात् अणुव्रतादिस्वरूप उस श्रावकधर्म का यथाक्रम से निरूपण किया गया है। स्थूलप्राणिवधविरति के प्रसंग में वहाँ हिंसा-अहिंसा के विषय में अनेक शंका-समाधान के साथ विस्तार से विचार किया गया है (१०७-२५६)। सामायिक शिक्षापद के प्रसंग में एक शंका के समाधानस्वरूप शिक्षा, गाथा, उपपात, स्थिति, गति, कषाय, बन्धक, वेदक, प्रतिपत्ति और अतिक्रम इन द्वारों के आश्रय से साधु और श्रावक के मध्यगत भेद को दिखलाया गया है (२६५-३११)। साथ ही आगे यहाँ श्रावक के निवास, दिनचर्या, यात्रा और संलेखना आदि के विषय में भी प्रकाश डाला गया है। यह ग्रन्थ इसके पूर्व संस्कृत टीका के साथ ज्ञानप्रसारक मण्डल बम्बई से संवत् १६६१ में प्रकाशित हो चुका है। उसका केवल संक्षिप्त गुजराती भाषान्तर भी ज्ञानप्रसारक मण्डल बम्बई से संवत् १६६७ में प्रकाशित हुआ है। ३. ग्रन्थकार ग्रन्थ में कहीं ग्रन्थकार से सम्बन्धित कुछ प्रशस्ति आदि नहीं है। इससे प्रस्तुत ग्रन्थ का कर्ता कौन है, यह निर्णय करना कुछ कठिन प्रतीत होता है। जैसा कि ज्ञानप्रसारक मण्डल द्वारा प्रकाशित प्रकृत ग्रन्थ के आमुख में निर्देश किया गया है, ग्रन्थ की कुछ हस्तलिखित प्रतियों के अन्त में 'उमास्वाति विरचिता सावयपनत्ती संमत्ता' यह वाक्य पाया जाता है। इसके अतिरिक्त पंचाशक के टीकाकार अभयदेव सूरि ने 'वाचकतिलकेन श्रीमतोमास्वातिवाचकेन श्रावकप्रज्ञप्तौ सम्यक्त्वादि श्रावकधर्मो विस्तरेणाभिहितः' इस वाक्य के द्वारा वाचक उमास्वातिविरचित श्रावकप्रज्ञप्ति की सूचना की है। इसी प्रकार धर्मबिन्दु के टीकाकार मुनिचन्द्र ने भी वहाँ यह कहा है-तथा च उमास्वातिवाचकविरचितश्रावकप्रज्ञप्तिसूत्रम् । १. देखिए. 'अनेकान्त' वर्ष १८, किरण-१ में पृ. १०-१४ पर 'श्रावकप्रज्ञप्ति का कर्ता कौन' शीर्षक लेख।

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