Book Title: Satyashasana Pariksha
Author(s): Vidyanandi, Gokulchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 64
________________ प्रस्तावना तरह प्रारम्भके चार दर्शन अद्वैतवादी या अभेदवादी हैं । द्वैतवादी - द्वैतवादी या भेदवादी शासनोंसे प्रयोजन उन दार्शनिक संप्रदायोंसे है जो किसीन-किसी रूप में एक से अधिक तत्त्वको स्वीकार करते हैं । चार्वाक पृथ्वी आदि पाँच भूतोंको स्वीकार करता है, इसलिए प्रत्यक्षैकप्रमाणवादी होनेपर भी उसकी गणना द्वैतवादी या भेदवादी दर्शनों में की गयी है । बौद्ध अनात्मवादी होनेपर भी पञ्चस्कन्धोंको स्वीकार करनेके कारण भेदवादी है । सांख्यने प्रकृति और पुरुष दो तत्त्व माने हैं । इसी तरह नैयायिक, वैशेषिक आदि अन्य शासनों में भी एकसे अधिक तत्त्व स्वीकार किये गये हैं । इसलिए इन सबको गणना भेदवादी दर्शनोंमें की गयी है । इस तरह उपयुक्त शासनों में प्रारम्भके चार शासनोंको छोड़कर शेष दस शासन द्वैतवादी या भेदवादी हैं । उपर्युक्त चौदह शासनों में से प्रस्तुत संस्करण में केवल प्राभाकर शासन तक ही ग्रन्थ मुद्रित हुआ है; वास्तवमें तो प्राभाकरशासन भी पूरा नहीं है । यह संस्करण जिन हस्तलिखित प्रतियोंके आधारपर तैयार किया गया है, पाया जाता है। संभव है भविष्य में इसकी पूर्ण प्रति भी कहीं उपलब्ध हो जाये ! विद्यानन्दकी अंतिम कृति हो, जिसे वे पूरा न कर सके हों ! भाषा और शैली ५ सत्यशासन-परीक्षाकी भाषा सरल, सुबोध एवं सरस संस्कृत है । उद्धृत वाक्य तथा विद्यानन्दिकी स्वनिर्मित कारिकाओं ( जो कि प्रत्येक शासन के अन्तमें पायी जाती हैं ) के अतिरिक्त संपूर्ण ग्रन्थ सुन्दर गद्य में रचा गया । न्यायकी शुष्क शैलीमें भी संस्कृतका माधुर्य सुरक्षित रखा जा सकता है, इसका सत्यशासन - परीक्षा अद्वितीय प्रमाण है । अष्टसहस्रो तथा तत्त्वार्थश्लोकवार्तिककी दुरूह भाषा लिखनेवाला व्यक्ति इतना सरल शब्द -विन्यास भी कर सकता है, यह विद्यानन्दि-जैसे संस्कृत भाषाके महान् पण्डितके लिए ही संभव था । छोटे-छोटे वाक्योंमें कठिनसे कठिन प्रमेयको उपस्थित करके विद्यानन्दिने संस्कृत और न्याय के गूढ़ तत्त्वोंको समझानेका प्रयत्न किया है । सत्यशासन - परीक्षाको भाषा कहीं-कहीं साहित्यकी तरह आलंकारिक भी हो गयी है । जैसे— "एवं हि सर्वभावानां क्षणभङ्गसंगममेवाङ्गशृङ्गारमङ्गीकुर्वाणास्ताथागताः संगिरन्ते । " ( बौद्ध ०६१ ) "प्राक् परमाणवः प्रतिभासन्त इति परेषां प्रतिज्ञा पोप्लूयते ।" ( बौद्ध ० ६ १८ ) इन उदाहरणोंमें शब्दानुप्रासको छटा दर्शनीय है । भाषा के जाल में लपेटकर विद्यानन्दि साहित्यिक उपहास किये बिना भी नहीं रहते उन सभी में ग्रन्थ इतना ही यह भी संभव है कि यह Jain Education International “न चैते''''प्रत्यक्षबुद्धौ भिन्नाः प्रतीयन्ते प्रत्यक्षताञ्च स्वोकर्तुमिच्छन्तीति तेऽमो अमूल्यदानक्रयिणः ।” ( वैशे ० ६ ११ ) इस पंक्ति द्वारा किस कुशलतासे पूर्वपक्षीको मुफ्तखोर कह दिया गया है, यह देखने योग्य है । और भी— “तथा च हेयोपादेयोपायरहितमय मह्नीकः केवलं विक्रोशतीत्युपेक्षार्ह एव । " ( बौद्ध० ६५० ) इन शब्दोंके द्वारा विद्यानन्दिने धर्मकीर्तिके निम्न शब्दोंको सधन्यवाद लौटा दिया है"एतेनैव यदोका यत्किचिदश्लील माकुलम् । प्रलपन्ति " ( प्रमाणवार्तिक ३।१८२ ) इस प्रकार सत्यशासन-परीक्षाकी भाषा पाठकको न तो कहीं रुकावट पैदा करती है और न अरुचि । सत्यशासन-परीक्षाकी शैली यद्यपि विषय- प्रतिपादनकी दृष्टिसे न्याय ग्रन्थोंके समान ही कही जा सकती है, फिर भी इसकी एक अपनी अनूठी विशेषता भी है। जिस दर्शनको समीक्षा के लिए प्रस्तुत करना है सर्वप्रथम उसके सिद्धान्तोंको उसी दर्शनके मूल ग्रन्थोंसे उद्धरण देकर विस्तार के साथ पूर्वपक्ष की स्थापना की जाती है । पूर्वपक्षको पढ़ते समय ऐसा महसूस होता है कि उसी दर्शनके मूल ग्रन्थको पढ़ा जा रहा हो । उदाहरण के लिए ब्रह्माद्वैतको ही ले लें, पूर्वपक्षको स्थापना इस प्रकार की है— For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164