Book Title: Satyashasana Pariksha
Author(s): Vidyanandi, Gokulchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 67
________________ सत्यशासन-परीक्षा जायेगा। यदि उसे मिथ्या मानें तो मिथ्या अनुमानसे साध्यकी सिद्धि नहीं हो सकती। दूसरोंके द्वारा माने गये पक्ष आदिके भेद-प्रतिभासको अमिथ्या मानकर उससे प्रत्यक्षको मिथ्या सिद्ध करने में अनवस्था आयेगी। २९. प्रत्यक्षमें प्रतीत होनेवाले क्रिया-कारक भेद भ्रान्त हैं, इसलिए वे ब्रह्म के बाधक नहीं बन सकते; ऐसा माननेपर बाध्य और बाधकको द्वैत मानना पड़ेगा। ३०. इस तरह अभ्रान्त प्रत्यक्ष-द्वारा प्रसिद्ध क्रिया-कारकका भेद परमब्रह्माद्वैतको दृष्ट ( प्रत्यक्ष ) विरुद्ध सिद्ध करता है। ३१. उपर्युक्त विवेचनसे ही परमब्रह्माद्वैतशासन इष्ट विरुद्ध भी सिद्ध होता है; क्योंकि ऊपर अनुमान और आगमके द्वैतकी चर्चा की जा चकी है। द्वैतके बिना अद्वैतकी सिद्धि उसी तरह सम्भव नहीं है जिस तरह हेतुके बिना साध्यकी सिद्धि; क्योंकि प्रतिषेध्यके बिना प्रतिषेध नहीं होता। ३२. इसके अतिरिक्त ब्रह्मवादमें तत्त्वोपप्लवकी तरह पुण्य-पाप, सुख-दुःख, इहलोक-परलोक, विद्या. अविद्या तथा बन्ध-मोक्षकी व्यवस्था नहीं बनेगी। ३३. इस तरह ब्रह्मवादियोंका सारा कथन वन्ध्यापुत्रके स्वरूप-वर्णनकी तरह व्यर्थ ही है, क्योंकि किसी भी प्रमाणसे ब्रह्माद्वैत सिद्ध नहीं होता। यदि किसी प्रमाणसे मानें तो प्रमाण और प्रमेयके द्वैतका प्रसंग आयेगा। भ्रान्त प्रमाणसे अद्वैतको सिद्धि माननेपर स्वप्न में देखे गये धऍसे वास्तविक अग्निकी उपलब्धिका भी प्रसंग आयेगा। ३४. एक बात यह भी है कि यदि एक ही परमब्रह्म है तो वही क्यों नहीं सर्वप्रथम ज्ञात होता और यदि संसार--(प्रपञ्च) खर-विषाणकी तरह सर्वथा अभाव रूप है तो वही क्यों अहमहमिकतया प्रतीत होता है ! यह कहना ठीक नहीं कि अविद्याके कारण ऐसा होता है। क्योंकि अविद्याको यदि सत् माना जायेगा तो ब्रह्म और अविद्याका द्वैत हो जायेगा; यदि असत मानें तो वह मिथ्या प्रतीतिका कारण नहीं बन सकती और यदि सत-असतसे भिन्न अनिर्वचनीय मानें तो यह उपदेश नहीं बन सकता कि--'अविद्या संसार दशामें है. क्योंकि संसार अविद्याका विलास है: मक्ति दशामें नहीं; क्योंकि मक्ति अविद्या निवत्ति रूप है। यह कहना कि अविद्या अनिर्वचनीय है, उसी तरह है जिस तरह यह कहना कि 'मैंने जीवन-भर के लिए मोन धारण किया है, मेरे पिता ब्रह्मचारी हैं. मेरी माँ वन्ध्या हैं' इत्यादि । ३५-४१ इन सात वाक्य खण्डोंमें अविद्याका विस्तारके साथ खण्डन किया गया है । [शब्दाद्वैतशासन-परीक्षा ] ६ ४२. परमब्रह्माद्वैतके उपर्युक्त विवेचनसे शब्दाद्वैतका भी निराश हो जाता है। परमब्रह्माद्वैतकी तरह इसमें भी पूर्वोक्त दोष आते हैं, केवल प्रक्रिया मात्रका भेद है। इसी कारण उसका पुनः विस्तार नहीं किया गया। [ विज्ञानाद्वैतशासन-परीक्षा] [पूर्वपक्ष ] १-५ सम्पर्ण ग्राह्य-ग्राहकाकार ज्ञान भ्रान्त हैं। जिस प्रकार स्वप्न और इन्द्रजाल आदि ज्ञान भ्रान्त होते हैं उसी प्रकार ग्राह्य-ग्राहकाकार आदि प्रत्यक्ष भी भ्रान्त हैं । भ्रान्त, प्रत्यक्ष आदिके द्वारा जाने गये बाह्य अर्थ वास्तविक नहीं हैं अन्यथा स्वप्न प्रत्यक्षको भी वास्तविक मानना होगा। इस तरह बाह्य अर्थ असम्भव है। स्वसंवित्ति (विज्ञान) ही खण्डश: प्रतिभासित होती हई समस्त वेद्य-वेदक व्यवहारको कराती है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु क्षौर आकाश स्वसंवित्तिसे भिन्न कुछ भी नहीं हैं। एक संवित्ति ही नील, पीत, सुख, दुःख आदि अनेक प्रकारसे ज्ञात होती है। इसलिए बाह्य अर्थके अभावमें विज्ञानाद्वैत ही सिद्ध होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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