Book Title: Satyashasana Pariksha
Author(s): Vidyanandi, Gokulchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 87
________________ सत्यशासन-परीक्षा . स्वप्नप्रत्ययवत"" [प्रमाण० वार्तिकालं० पृ० ३५९ ] [१८] तत्त्वसंग्रह और सत्यशासन-परीक्षा शान्तरक्षितका तत्त्वसंग्रह बौद्धदर्शनके महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों में से है। इसमें सभी भारतीय दर्शनोंको पूर्वपक्षके रूप में प्रस्थापित करके उनका खण्डन किया गया है। विद्यानन्दिने सत्यशासन-परीक्षामें तत्त्वसंग्रहसे चार्वाक दर्शनके प्रसंगमें निम्न पद्य उद्धृत किया है "सुगतो यदि सर्वज्ञः कपिलो नेति का प्रमा। तावुभौ यदि सर्वज्ञौ मतभेदस्तयोः कथम् ॥"" [ तत्त्वसंग्रह ३१४९ ] [१९] ब्रह्मसिद्धि और सत्यशासन-परीक्षा - ब्रह्मसिद्धि आचार्य मण्डनमिश्रकी कृति है। विद्यानन्दिने इसका 'आहुविधातृप्रत्यक्षम्' इत्यादि पद्य सत्यशासन-परीक्षाके परमब्रह्माद्वैत प्रकरणमें उद्धृत किया है। [२०] संबन्धवार्तिक और सत्यशासन-परीक्षा संबन्धवातिक सुरेश्वर मिश्र-द्वारा रचित वेदान्त सिद्धान्तोंका विवेचन करनेवाली एक महत्त्वपूर्ण कृति है। विद्यानन्दिने सत्यशासन-परीक्षामें इसके आठ पद्योंको परमब्रह्माद्वैत-परीक्षाके प्रकरणमें उद्धृत किया है। इन पद्योंमें नाना विकल्पोंके साथ अविद्याको सिद्ध करनेका प्रयत्न किया गया है। [१] ग्रन्थकार-परिचय विद्यानन्दि और उनका युग विद्यानन्दिने अपने विषयमें कहीं कोई स्पष्ट जानकारी नहीं दी। उनके शास्त्रोंका अन्तःपरिशीलन करनेपर हम इस निष्कर्षपर पहुंचते हैं कि आचार्य विद्यानन्दिका आविर्भाव भारतीय दर्शनोंके उस स्वर्ण-कालमें हआ था जब न्यायशास्त्र अपने पूर्ण यौवनकी उत्ताल-तरंगोंमें मदमाता झूम रहा था। न्यायशास्त्रकी अनेक मान्यताएँ स्थिर हो चुकी थीं। शास्त्रकारोंका उद्देश्य स्पष्ट हो गया था तथा पूर्वाचार्योंने प्रगतिकी एक लम्बी मंजिल तय कर ली थी। विद्यानन्दिने पाया कि वैदिक. बौद्ध और जैन-न्यायके परस्पर तार्किक घात-प्रतिघातसे मँजकर प्रत्येक दर्शनके अनेक सिद्धान्त स्थिर, निश्चित और सुव्यवस्थित हो गये हैं। जैनदर्शनके जो मूल्य आगमोंमें निर्धारित किये गये थे उनका दोहन करके गद्धपिच्छाचार्य उमास्वातिने तत्त्वार्थसत्र में उनका संकलन किया था। समन्तभद्र और सिद्धसेनने शद्ध ताकिक शैलीमें उनकी प्रतिष्ठा करनेका सूत्रपात किया। उधर दिग्नागने बौद्ध चिन्तनकी ऐसी सुदृढ़ पृष्ठभूमि तैयार की, जिसपर धर्मकीतिने बौद्धन्यायके महाप्रासादका निर्माण किया । कणाद, जैमिनि, अक्षपाद, वात्स्यायन तथा प्रशस्तपादके क्रमिक चिन्तनसे एक ऐसे धरातलकी रचना हई कि मीमांसकधुरीण कुमारिलने आते ही दार्शनिक-जगतमें धूम मचा दी। धर्मकीर्तिने प्रमाणवार्तिको तथा कुमारिलने मीमांसाश्लोकवातिकमें सिद्धान्तोंका पारस्परिक खुब खंडन-मंडन किया। जब अकलंकका उदय हुआ, उन्हें जैन-न्यायके सितारे डूबते-से दृष्टिगोचर हुए, किन्तु उन्होंने धर्मकीति और कुमारिलका सामना करनेके १. सत्य०, विज्ञान० ६११ २. सत्य. चार्वाक०६१ ३. सत्य० परमब्रह्म० ६ १९ ४. सत्य. परमब्रह्म०६३५, सम्बन्धवार्तिक, श्लो० १७५-१८२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org:

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