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प्रस्तावना
१३
९. निर्विकल्पक प्रत्यक्षसे परमाणुओंका प्रत्यक्ष नहीं हो सकता; क्योंकि अविसंवादरहित होने के कारण निर्विकल्पक प्रत्यक्ष अनिश्चयात्मक है; अतएव अप्रमाण है ।
$ १० - ५०. इन वाक्यखण्डों में विस्तार के साथ परमाणु प्रत्यक्षका खण्डन है ।
[ सांख्यशासन-परीक्षा ]
[ पूर्वपक्ष ]
$ १. यह समस्त संसार प्रधान (प्रकृति) मय है । सत्त्व, रज और तमोगुणकी साम्यावस्थाका नाम प्रधान ( प्रकृति ) है |
$ २. सत्त्व गुण इष्ट, प्रकाशक तथा लघु होता है। इसके उदयसे प्रशस्त ही परिणाम होते हैं। रजोगुण चल, अवष्टंभक, दारक और ग्राहक होता है । इसके उदयसे राग परिणाम होते हैं । गुरु, आवरण करनेवाला तथा अज्ञानरूप तमोगुण है । इसके उदयसे द्वेष के कारण अज्ञानरूप ही परिणाम होते हैं । इन तीनों गुणोंकी साम्यावस्था प्रकृति है । प्रधान व बहुधानक इसके नामान्तर हैं ।
६ ३. प्रकृति ही संसारको उत्पन्न करनेवाली है । प्रकृतिसे महान् महानसे अहंकार, अहंकारसे पंचतन्मात्रा, पाँच ज्ञानेन्द्रियां, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और मन ये षोडशगण तथा पंचतन्मात्राओंसे पंचभूतों की उत्पत्ति होती है ।
४. ये चौबीस तत्त्व हैं । पच्चीसवाँ जीव तथा छब्बीसवाँ मुक्त है। यह निरीश्वर सांख्योंकी मान्यता है । सेश्वर सांख्योंके अनुसार छब्बीसवां महेश्वर है तथा सत्ताईसवाँ मुक्त है ।
$ ५ प्रकृति और पुरुषके भेद विज्ञानसे मोक्ष होता है। पंचविशति तत्त्वोंका परिज्ञान मोक्षका
कारण है ।
[ उत्तरपक्ष ]
६-७ यह सांख्यमत दृष्ट ( प्रत्यक्ष ) विरुद्ध है - सांख्योंने प्रकृतिको नित्य तथा सर्वव्यापी माना है । इसका अर्थ है कि सब कुछ सभी जगह रहना चाहिए 'सर्वं सर्वत्र वर्तते । किन्तु प्रत्यक्ष से ऐसा ज्ञात नहीं होता ।
S ८-१०. ' सबका सब जगह सद्भाव रहनेपर भी जिसका जहाँ आविर्भाव होता है वही वहाँ दृष्टिगोचर होता है ।' सांख्योंका यह कथन युक्त नहीं; क्योंकि यह आविर्भाव किसी भी तरह सिद्ध नहीं होता ।
$ ११. इसी तरह तिरोभाव मानना भी उचित नहीं; क्योंकि वह भी आविर्भावकी तरह सिद्ध नहीं होता । इस प्रकार आविर्भाव और तिरोभाव के असिद्ध होनेसे प्रधान भी असिद्ध हो जाता है। उसके अभाव में महत् आदि कुछ भी नहीं बनेगा ।
$ १२. इसके बाद भी यदि महदादिका निरूपण करें तो प्रश्न होगा कि यह प्रधानका कार्य है या परिणाम ? कार्य माननेपर सर्वथा सत् अथवा सर्वथा असत् कार्यकी उत्पत्ति नहीं हो सकती ।
१३. परिणाम माननेपर प्रश्न होगा कि परिणाम प्रकृतिसे भिन्न हैं या अभिन्न ? अभिन्न माननेपर
क्रमसे वृत्ति नहीं होगी और भिन्न माननेपर प्रकृति के साथ उनका सम्बन्ध नहीं माना जा सकता ।
$ १४. प्रकृतिको परिणामोंका उपकारी मानना भी ठोक नहीं; क्योंकि अनेक दोष आते हैं ।
$ १५. यदि यह मानें कि परिणाम प्रकृतिसे न भिन्न हैं न अभिन्न, प्रकृति ही महदादि रूप में परिणत होती हैं; तो यह मानना भी ठीक नहीं; क्योंकि इससे स्वयं सांख्यसम्मत नित्यैकान्तका विरोध होता है ।
$ १६. इस तरह अनेक बाधकोंके होनेसे प्रकृति ( प्रधान ) सिद्ध नहीं होती । भोग्य प्रकृति के अभाव में भी सिद्ध नहीं होता । इस प्रकार सांख्याभिमत सभी तत्त्व शून्य हो जाते हैं ।
पुरुष
१७-१८. सांख्यमत इष्ट विरुद्ध भी है-कथंचित् नित्यत्व साधक अनुमानसे कूटस्थ नित्य पुरुषका विरोध आता है। अनुमान इस प्रकार
:
भोक्ता
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