Book Title: Satyashasana Pariksha
Author(s): Vidyanandi, Gokulchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 74
________________ प्रस्तावना देते तो फिर इतना महान् ईश्वर क्यों दुःख देगा? ऐसे भयंकर दुःख देनेवाला तो कोई राक्षस ही हो सकता है ईश्वर नहीं। $ ३१. यदि दुःखका कारण कर्मोको माने तो फिर ईश्वरको माननेकी जरूरत नहीं, कर्म ही शरीरादिके भी कारण हो जायेंगे । ३२. यह कहना उचित नहीं कि अचेतन कर्मोसे तनुकरणादिकी उत्पत्ति कैसे होगी; क्योंकि जिस प्रकार मदिरा, मदन, कोद्रव आदिसे उन्मादु आदि कार्य उत्पन्न हो जाते हैं; उसी प्रकार कर्मोसे शरीरादि भी। $ ३३-३४. वैशेषिकोंके द्वारा ईश्वर कर्तृत्व सिद्धि के लिए दिया गया बुद्धिमन्निमित्तत्व हेतु भी ठोक नहीं; क्योंकि यह एक बुद्धिमत् कारणको सिद्ध करता है या अनेकको ? प्रथमपक्ष में हेतु अनैकान्तिक है तथा द्वितोय पक्षमें सिद्धसाधन दोष आता है। $ ३५. बुद्धिमन्निमित्तत्वको जगत्कर्तृत्व सिद्ध करनेके लिए हेतु माननेपर और भी अनेक दोष आते है । इसलिए ठीक हो कहा है कि वैशेषिकशासन इष्टविरुद्ध भी है। [ नैयायिकशासन-परीक्षा] [ पूर्वपक्ष ] १. प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन आदिके तत्त्वज्ञानसे मोक्ष होता है। ६२. भक्तियोग, क्रियायोग तथा ज्ञानयोगसे सालोक्य, सारूप्य, सामीप्य तथा सायुज्य मुक्ति होती है। $ ३-५. महेश्वरमें स्वामी-सेवक भाव रूपसे तच्चित्त होकर जीवनभर उसकी परिचर्या करना भक्तियोग है, इससे सालोक्य मुक्ति होती है। तप, स्वाध्याय, अनुष्ठान आदि क्रियायोग है। इससे सारूप्य या सामीप्य मुक्ति होती है । परमेश्वर-तत्त्वका अनवरत चिन्तन और पर्यालोचन ज्ञानयोग है; इसके यम नियम आदि आठ अंग हैं, इससे सायज्य मक्ति होती है। [उत्तरपक्ष ] ६६. वैशेषिकशासनमें जिस प्रकार प्रत्यक्ष और अनुमान विरोध ऊपर प्रदर्शित किया गया है उसो तरह उक्त दोनों ही प्रकारका विरोध इस शासनमें भी आता है, अतः पुनः यहाँ नहीं दुहराया गया। ७. हां, इतना यहाँ विशेष ज्ञातव्य है कि नैयायिकोंके द्वारा माने गये पदार्थोंमें-से इन्द्रिय, बुद्धि और मन अर्थोपलब्धिके साधक होनेसे प्रमाण-कोटिमें आते हैं, इस कारण प्रमेयोंमें उनका समावेश नहीं हो सकता। संशयादिको प्रमेयभिन्न माननेपर उनकी व्यवस्था नहीं बन सकेगी। इसके अतिरिक्त विपर्यय तथा अनध्यवसायकी षोडश पदार्थोसे पृथक प्रतीति होनेके कारण नैयायिकोंकी षोडशपदार्थ-व्यवस्था नहीं बनती। ६८. इस प्रकार नैयायिक और वैशेषिक सिद्धान्त दृष्टेष्ट विरुद्ध होनेसे उनका प्रतिपादक आगम भी प्रमाण नहीं बनता। इसलिए उनका लौकिक तथा वैदिक सभी कथन मिथ्या है। [ मीमांसक या मादृप्राभाकरशासन-परीक्षा] [ पूर्वपक्ष ] १. मीमांसकोंके मुख्यतया दो संप्रदाय हैं-भाट्ट और प्राभाकर । इनमें भाट्टोंकी मान्यता इस प्रकार है पृथ्वी, अप, तेज, वायु, दिक् , काल, आकाश, आत्मा, मन, शब्द और तम ये ग्यारह ही पदार्थ हैं । तदाश्रित गुण, कर्म आदि इन्हीं पदार्थोके स्वभाव होनेसे पदार्थान्तर नहीं हैं। इस तरह पदार्थों के यथार्थ ज्ञानसे कर्मोंका नाश होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164