Book Title: Saptatishatsthanprakaranam
Author(s): Somtilaksuri, Ruddhisagarsuri
Publisher: Buddhisagarsuri Jain Gyanmandir

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Page 316
________________ ( 55 ) पश्चाशदेकचत्वारिंशत् चत्वारिंश-दष्टत्रिंशत् षट्त्रिंशत् सहस्राणि सर्वाके // चतुश्चत्वारिंशल्लक्षाणिषट् त्रिंशत्-सहस्र चतुःशत षडधिकानि // 238 // बितिन्ने सुविहाइसु, छसुतितिइँगईंगईगेगलक्खुवरि / कमसोअसी असी वीस, छत्तिसहस्सा सया अट्ठ // 239 // बुवन्त्यन्ये सुविध्यादिषु, षट्सु त्रीणित्रीण्येकैकमेकैकं लक्षोपरि / क्रमतोऽशीतिरशीति-विंशतिः, षट् त्रीणि सहस्राणि शतान्यष्ट 239 उसहस्स तिन्निलक्खा, अजियाइसु दुन्नि कुंथुमाएगो। तदुवरि कमेण सहसा, पण अडनउईअतिणउई // 240 // अडसी इगसी छसयरि, सगवन्ना पंचतहइगुणतीसा / इगुणनवइ इगुणासी, पनरसअडछचउ चत्तावा // 241 // नवइ गुणासी चुलसी, तेसीअ बिसत्तरीअ सयरीअ / गुणहत्तरि चउसट्ठी, गुणसर्व्हिसहस्ससट्ठाणं // 242 // ऋषभस्य त्रीणि लक्षा-ण्यजितादिषु द्वे कुन्थ्वादिष्वेकम् / .. तदुपरिक्रमेणसहस्राणि, पश्चाष्टनवतिस्त्रिनवतिः // 240 // अष्टाशीत्येकाशीती षट् सप्ततिः, सप्त पश्चाशत् पञ्चाशदथैकोनत्रिंशत् एकोननवतिरेकोनाशीतिः, पञ्चदशाऽष्टषट्चत्वारिचत्वारिंशद्वा 241 नवत्येकोनाशीतिचतुरशीति--रुयशीतिश्च द्विसप्ततिः सप्ततिश्च / एकोनसप्ततिश्चतुः षष्टि-रेकोनषष्टिः सहस्राणि श्राद्धानाम् // 242 //

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