Book Title: Saptatishatsthanprakaranam
Author(s): Somtilaksuri, Ruddhisagarsuri
Publisher: Buddhisagarsuri Jain Gyanmandir
________________ __( 65 ) सर्वैश्चत्वारि सामायिकानि, सम्यक्श्रुतदेशसर्वविरतिभिः / : भणितानि सागरकोटा-कोटीकर्मसु शेषेषु // 285 // देसिअ 1 राइअ 2 पक्खिय 3, चउमासिअवच्छरीअनामाओ दुन्ह पण पडिकमणा, मज्झिमगाणं तु दो पढमा // 286 // देवसिकरात्रिकपाक्षिक-चातुर्मासिक सांवत्सरिकं नामतः / द्वयोःपञ्च प्रतिक्रमणानि, मध्यमगानां तु द्वे प्रथमे // 286 // मूलगुणेसु अ दुण्हं 1-24 सेसाणुत्तरगुणेसु निसिभुत्तं / दसहा दुहं 1-24 भणिओ, चउहा अन्नेसि ठिइकप्पो 287 मूलगुणेषु च द्वयोः, शेषाणामुत्तरगुणेषु निशि भुक्तम् / दशधा द्वयोर्भणितः, चतुर्दाऽन्येषां स्थितिकल्पः // 287 // अचेलुक्कुद्देसिय, सिजायर रायपिंडकिइकम्मे / वय जिट्ठ पडिक्कमणे, मासं पजोसवणकप्पे // 288 // आचेलक्यौदेशिक-शय्यातरराजपिण्डकृतिकर्म। . व्रतज्येष्ठप्रतिक्रमणं, मासपर्युषणाकल्पौ . // 288 // सिज्जायर पिंडमी, चाउजामेअ पुरिसजिढे अ / किइकम्मस्स अ करणे, चत्तारि अवडिआ कप्पा // 289 // शय्यातरस्य पिण्डे, चतुर्यामे च पुरुषज्येष्ठे च।। कृतिकर्मणश्च करणे, चत्वारोऽवस्थिताः कल्पाः // 289 //
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