Book Title: Saptatishatsthanprakaranam
Author(s): Somtilaksuri, Ruddhisagarsuri
Publisher: Buddhisagarsuri Jain Gyanmandir
________________ पडिकमण 1 निवु 2 देसिय 3, चेलुक्के 4 मास 5 वच्छरिय कप्पे 6 / छद्धा अट्ठिइकप्पो, मज्झिमगाणं 22 न इअराणं // 290 // प्रतिक्रमणनृपोदेशिकाऽऽ-चेलक्यमाससांवत्सरिककल्पाः / षोढाऽस्थितिकल्पो-मध्यमकानां नेतरेषाम् // 290 // पुरिमस्स 9 दुविसुज्झो, चरमस्स अ दुरणुपालणोकप्पो / मज्झिमगाण 22 मुणीणं, सुविसुझो सुहणुपालणओ // 291 प्रथमस्य दुर्विशोध्य-श्वरमस्य च दुरनुपाल्यः कल्पः / / मध्यमकानां मुनीनां, सुविशोध्यः सुखाऽनुपाल्यः // 291 // समइयचउवीसत्थय-वंदणपडिकमणकाउसग्गा य / पञ्चक्खाणं भणिअं, जिणेहिं आवस्सयं छद्धा // 292 // ते दुण्ह सय दुकालं, इअराणं कारणे इओ मुणिणो / पढमिअरवीरतित्थे, रिउजडरिउपन्नवक्कजडा // 293 // सामायिकचतुर्विंशतिस्तव-वंदनप्रतिक्रमणकायोत्सर्गाश्च / प्रत्याख्यानं भणितं, जिनैरावश्यकं षोढा // 292 // तद्वयोः सदा द्विकाल-मितरेषां कारणे इतो मुनयः // प्रथमेतरवीरतीर्थे, ऋजुजडऋजुप्राज्ञवक्रजडाः // 293 // पंचासववेरमणं, पंचिंदियनिग्गहो कसायजओ। दंडत्तिगाउ विरई, सतरमहा संजमो इअ वा // 294 / /
Page Navigation
1 ... 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366