Book Title: Sanskrit Bhasha Ke Adhunik Jain Granthkar
Author(s): Devardhi Jain
Publisher: Chaukhambha Prakashan

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Page 13
________________ संस्कृत भाषा के आधुनिक जैन ग्रंथकार : ११ हुआ। कुछ आगम साहित्य नष्ट हो चुका है, यह बात वल्लभी की वाचना में भी स्पष्ट हुई। वल्लभी में जो वाचना हुई उसमें कंठस्थ आगमों को लिखा गया था। श्री नागार्जुनसूरिजी म. का मार्गदर्शन मुख्य रहा। __ वीरनिर्वाण संवत् ९६० के आस-पास भी बारह वर्ष का दुष्काल आया। दुष्काल समाप्त होने पर श्रमण वर्ग का संमेलन वल्लभी में हुआ। वल्लभी में यह दूसरा संमेलन था। इस संमेलन के अध्यक्ष थे श्री देवर्धिगणि क्षमाश्रमण। यह वाचना ऐतिहासिक बनी थी। संपूर्ण ग्रंथ साहित्य को अक्षरशः लिखने का निर्णय लिया गया। पुरातन वाचना के अक्षर पाठों का विमर्श हुआ। मथुरा वाचना के पाठों को 'स्कंदिली वाचना' नाम मिला। पुरातन वल्लभी वाचना के पाठों को 'नागार्जुनी वाचना' नाम मिला। द्वितीय वल्लभी वाचना में आगम लेखन हुआ उसमें मथुरा वाचना को मुख्य आधार माना गया था। पाठभेद होने पर विभिन्न पाठों को लिखकर बताया गया कि यह पाठ नागार्जुनी वाचना का है। आगम लेखन के विराट पुरुषार्थ के बाद दो लाभ सिद्ध हुए। एक, आगम पाठों का नया पाठभेद उपस्थित होने की संभावना नामशेष हुई। दो, आगमग्रंथ पुस्तकारूढ़ होने से विस्मरण और विलोप का भय कम हुआ। वल्लभीपुर में आगम लेखन का कार्य संपन्न हो गया। श्रमण वर्ग को लगा कि कुछ विषय ग्रंथस्थ नहीं है लेकिन परंपरागत क्रम से सिखाए जाते हैं। ऐसे विषयों को ग्रंथबद्ध करने के लिए नूतन ग्रंथ रचनाएं की गईं। __ आगमग्रंथों का लिखित अवतार होने से आगमग्रंथों का वांचन सरल हो गया। जो ग्रंथ गुरुमुख से सुनकर याद रखे जाते थे वो ग्रंथ लिखे गए, इसलिए ग्रंथों का स्वाध्याय व्यापक हो गया। जो कंठस्थ कर सकते थे वो कंठस्थ करके आगमग्रंथों का अभ्यास करते रहे। जो कंठस्थ नहीं कर सकते थे वो वांचन करते रहे। प्राकृत भाषा में विरचित आगमसूत्रों के अर्थ और रहस्यार्थ समझने के लिए विवरणग्रंथ की अपेक्षा विशेषतः महसूस होने लगी। आगम लेखन की विशिष्ट फलश्रुति अब आई। आगमग्रंथों पर समृद्ध टीकाएं लिखने का प्रारंभ हुआ। आगम संबंधी साहित्य की परंपरा में नियुक्ति, चूर्णि और भाष्य का स्थान महत्त्वपूर्ण है। टीकाएँ विशेष स्थान ले सकी क्योंकि लेखन पद्धति उपलब्ध थी। टीकाकारों को विषय-विस्तार के लिए पर्याप्त अवकाश मिला। संस्कृत भाषा के प्रचलन को टीकाओं के द्वारा गति मिली। आगमग्रंथों के टीकाकारों की सूची लंबी है। विक्रम की आठवीं शताब्दी में श्री हरिभद्रसूरिजी म. ने अनुयोगद्वारसूत्र, नंदीसूत्र, प्रज्ञापनासूत्र, आवश्यकसूत्र, ओघनियुक्तिसूत्र, जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र, जीवाजीवाभिगमसूत्र

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