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SAMBODH
गोविन्दलाल शं शाह
सच्चातकव्रातरवच्छलेन गुस्तरां श्रीजगडूयशांसि ॥२२
बीसलदेव राजा का मंत्री नागड ने जगडू से अपना अश्व देने की माँग की, जो जगडू
अमान्य की ।
जब श्रीषेणसूरि नाग के बारे में चर्चा कर रहे थे तब आपका कंथकोट के एक योगी व साथ विवाद, श्रीषेणसूरि का अपने योगबल से अपने देह में नागदंश का विषप्रसार रोकना, सुंदरस्तोत्र गान, सात दिनों बाद योगी का उसी नाग के दश से मृत्यु आदि चमत्कारिक प्रसंग का वर्णन है
जगडू की श्रीषेणसूरि पर श्रद्धा बढती रही। श्रीषेणसूरि के पास से धर्मतत्त्व सूनकर जगज्ज का उद्धार करने वाला जगडू अपनी आयु पूरी करके हरि के लोचन को पावन करने के लि स्वर्ग में गये ।
तब लोगों को लगा की आज ही बलि, शिबि, विक्रम, जीमूतवाहन, भोज स्वर्ग में गयें शोक के कारण दिल्हीपति ने मस्तक पर से मुकुट नीचे उतारा, वीसलदेव के पुत्र अर्जुन ने अतिशय रुदन किया । सिंधपति हमीर ने दो दिन तक अन्न नहीं खाया। सभी राजाओं ने शोक मनाया
जगडू के राज और पद्म नामक दो भाई गुरु वचन से भारी शोक का त्याग करके धर्मकार्य में अग्रेसर रहे और राजा से सन्मानित रहते थे ।
शरद पूर्णिमा के चन्द्र के कम्पित किरण जैसी उज्ज्वल और जाज्वल्यमान कीर्ति के प्रकाश से पृथ्वी को निर्मल करने वाले और श्रीषेणसूरीन्द्र के चरण द्वन्द्व की सेवा में तत्पर ऐसे श्रीसंघ के उन दोनों अग्रणीओं ने श्रीमान विसल का समग्र कुल को बहुत समय तक सुशोभित किया । समीक्षा :- (१) महाकाव्यत्त्व
आचार्य दण्डी ने काव्यादर्श तथा विश्वनाथ ने 'साहित्यदर्पण' में २४ तथा अन्य आलकारिकों ने संस्कृत महाकाव्य के लक्षण दिये हैं । 'श्रीजगडूचरित' की परीक्षा इन लक्षणों के परिप्रेक्ष्य में हम कर सकते हैं ।
कवि सर्वानन्दसूरि ने 'श्रीजगडूचरित' को, प्रत्येक सर्ग की पुष्पिका में महाकाव्य कहा है। यह महाकाव्य सर्गबद्ध है । सात सर्ग होने के कारण विश्वनाथ का 'अष्टयधिकाः सर्गा:' तथा 'ईशान संहिता' का 'अष्टसर्गात् न न्यूनम्' लक्षण 'श्रीजगडूचरित' में नहीं दिखाई देता । द्वितीय संर्ग में तीस से कम श्लोकसंख्या है । अन्य सर्ग में इससे ज्यादा है । इस महाकाव्य का आरम्भ आशीर्वादात्मक है । कथावस्तु के बारे में 'अन्यद् वापि सदाश्रयम्, 'अन्यद वा सज्जनाश्रयम्' लक्षण लागु होता है । नायक जगडू है जिसका जन्म सद्वश में हुआ है और जो 'धीरोदात्तगुणान्वितः है। नायक चतुर और उदात्त भी है ।