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VoII XXII, 1998
आचार्य विश्वेश्वर के.
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इन अलकारों का वर्गीकरण और क्रम नियत न होने से हमने जो अलकार सादृश्यमूलक है और विरोध जैसे सादृश्येतर संबन्धमूलक अलकारों के अन्तर्गत रखे गये हैं उन सभी को सादृश्यमूलक समझ कर ही हमने विवेचित किये हैं ।
'अलकार प्रदीप' कार आचार्य विश्वेश्वर उस समय में हुए हैं, जब उनके सामने दीक्षितजी का सगम शैली में रचा गया कुवलयानन्द और प्रौढ शैली में रची गई चित्रमीमांसा भी थी तथा नव्यन्यायशैली में रचा गया आलकारिक धुरधर पडितराज जगन्नाथ का ग्रथराज 'रसगगाधर' भी था। उन्होंने मम्मट के का. प्र. में स्वीकृत ६१ अलकारों को ही स्वीकार कर पडितराज की ही नव्यन्याय शैली में मम्मट रुय्यक और स्वय जगन्नाथ के मतों के खण्डन से भरपूर काव्यशास्त्र की अलकारपरपरा के हृदय पर सुशोभित 'अलकार कौस्तुभ' की रचना की । यह ग्रथ 'विद्वद्जनहृदयरञ्जनाय' है । परंतु यहाँ इस शोधपत्र में हमने जिस प्रथांश की समीक्षा की है वह ग्रथ जो सूत्रात्मक पद्धति का है और कारिकापद्धति का ग्रथ है अलकारमुक्तावली' । ये दोनों ग्रथ जो अलकारों के अभ्यास की साधना आरंभ कर चूके है उनके लिए है । हम इन्हें 'बालाना तो नहीं परतु 'किशोराणामवगाहनाय' अवश्य समझेंगे।
अल. प्र. के सूत्र सक्षिप्त और सरल है । यहाँ रुय्यक के अलकार सूत्रों की तरह अपने आप में परिपूर्ण नहीं है । कभी कभी वृत्ति भी अधूरी-सी प्रतीत होती है । यहाँ सादृश्यमूलक अलंकारों को ले कर हमने जो ग्रंथाश का अध्ययन किया है उनसे आचार्य विश्वेश्वर की एक प्रौढ आलंकारिक के रूप में प्रतिभा निखरती है। विश्वेश्वर ने अपने पूर्वाचार्यों के अलकार मत का सग्रहसंचय और विश्लेषण अनुपम रूप से किया है । अलकारों के परस्पर के सबन्ध और उनके विषय में पूर्वाचार्यों का योगदान उन्होंने सारांश रूप में प्रस्तुत किया है । उपमा के तीन नये भेद, पर्यायोक्त का द्वितीय प्रकार उनकी प्रतिभा की देन है । परतु विकल्प, निश्चय इत्यादि अलकारों के स्वरूपनिरूपण में अस्पष्टता रह गई है। दीक्षितजी को समर्थित करते हुए उन्होंने प्रस्तुताकुर, ललित आदि अलकारों का स्वीकार किया है, किन्तु लक्षण में किश्चित् परिष्कार भी किया है । इस तरह अलं. प्र. का अर्थालंकार की विकासयात्रा में निःसन्देह अपना अमिटस्थान तो है ही।
पादटिपण्ण १ विकसितमभिरामतम रदनधुतिकेसर रुचिरपत्रम् । अलकश्यामलमाननमलिमलिनं नलिनमिय तस्या. ॥
-धर्माभिधाने च बहवः प्रकाराः । अत्रोक्ता. षट् । विकसितमित्युपचार. (२) पद्ये पत्रविभात्मकमुख्यविकाशः, मुखे तूपचारादुल्लास-विशेषः अभिरामेत्यनुगामित्वम् (३) रदनातिवत्केसराणि यत्रेति पद्मपक्षे, रदनद्युतय एव केसराणि यवेति मुखपक्षे इति समासभेदः । पत्रपदस्य दलपरत्वं कस्तूर्यादिपत्रलेखापरत्व चेति श्लेषः । कुन्तलभ्रमरयो बिम्बप्रतिबिम्बभावः । (१) स च वस्तुतो भिन्नयोरन्योन्यसादृश्यादभिन्नतयाध्यवसितयो प्रयोगः । श्यामलत्व मालिन्य
चाभिन्नतया तद्विशेष्यतयोपात्तमिति वस्तुप्रतिवस्तुभावः । (२) (अल. प्र. पृ., १,२) २ उपमानोपमेयपोर्जायमानमैक्यमनन्वयः ॥ (अलकार पृ. ५)