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Vol XXII, 1998 'शाकुन्तल' के विदूषक की उक्तियाँ..
139 (ख) अभिज्ञानशाकुन्तलम् (काट्यवेमविरचितया वसतराजीया व्याख्यया समेतम्) सम्पा. रंगाचार्य श्री चेलमचेल आन्ध्रप्रदेश साहित्य अकाडमी, हैदराबाद, १९८२
(ग) अभिज्ञानशकुन्तल-चर्चा (अज्ञातकर्तृका) (१९६१ तमे ऊस्ताब्दे अनतशयन सस्कृत पन्थावल्यां १९५ तमांकन प्रकाशितस्य ग्रन्थस्य पुनर्मुद्रणम्) Published by University of Kerala, Trivandrum, Reprinted-1977
(घ) अभिज्ञानशाकुन्तलम्
(अभिरामकृतया दिङ्मात्रदर्शनाख्यया टीकया संभूषितम्) श्रीवाणीविलास-मुद्रा-यन्त्रालय, श्रीरङ्गम् । (समय अनुल्लिखित)
(ङ) अभिज्ञानशाकुन्तलम् (टीकाद्वयोपेतम्-राघवभट्ट एवं श्रीनिवासाचार्य तिरुमलाचार्य) मद्रास, १९५० (च) घनश्यामकृत अभिज्ञानशाकुन्तल-सञ्जीवनटिप्पण का समीक्षित सम्पादन सम्पादिका : श्रीमती पूनम पंकज रावळ,
A PhD thesis, submitted in the Gujarat University, Ahmedabad-1991 (unpublished )
इन में मोनीयर वीलीयम्स की जो आवृत्ति है उसमें देवनागरी-वाचना का पाठ है । रिचार्ड पिशेल ने बगाली वाचना का पाठ सम्पादित किया है । डॉ. एस. के. बेलवेलकरजी ने काश्मीरी वाचनानुसार पाठसम्पादन किया है और प्रोफे. रेवाप्रसाद द्विवेदी ने देवनागरी वाचना का ही अपनी मनीषा के अनुसार पुनः सम्पादन किया है । [यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि अद्यावधि दाक्षिणात्य हस्तलिखित प्रतियाँ के आधार पर कोई दाक्षिणात्यवाचना का स्वतंत्र समीक्षित पाठसम्पादन करने का प्रयत्न नहीं हुआ है ! ]
'अभिज्ञानशाकुन्तल' पर जो टीकाटिप्पणादि साहित्य लिखा गया है, वह कौन सी वाचना का अनुसरण करनेवाला है यह भी द्रष्टव्य है :-(१) शंकर और नरहरि की टीकाएँ मैथिली पाठ परम्परा का अनुसरण करनेवाली है, (यह दोनों टीकाएँ प्रायः बंगाली-गौडी-वाचना के साथ अधिक साम्य रखती है) । और शुद्ध बंगाली वाचना में संक्रमित होनेवाले शाकुन्तल पर जो चन्द्रशेखर की 'सन्दर्भदीपिका' टीका है, वह अद्यावधि अप्रकाशित ही है । (२) राघवभट्ट की व्याख्या देवनागरी वाचना का प्रतिनिधित्व करती है। और (३) अभिराम, चर्चा, काट्यवेम, घनश्याम एव श्रीनिवास की टीकाएँ यद्यपि दाक्षिणात्य ही कही जाती है फिर भी वह नागरीपाठ परम्परा के साथ अधिक साम्य रखती है, (अतः श्री रेवाप्रसाद द्विवेदी ने तो उसको पृथक् वाचना मानी ही नहीं है।)
[(४) शारदा अर्थात् काश्मीरी वाचना के शाकुन्तल पर लिखी गई कोई भी टीका ज्ञात नहीं