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SAMBODHI
गोविन्दलाल श शाह उपसंहार-- सर्वानन्दसूरि के 'श्रीजगडूचरित' में सहृदय भावक को काव्यानन्द दे सके ऐसे बहुत श्लोक हैं।
पचमहाकाव्य और अन्य प्रचलित सस्कत महाकाव्यों की पंक्ति में हम न भी रखें तोडी कवि ने जगडू के करुणा, दानवृत्ति, मानवसेवा, जैनधर्मसेवा, वणिक व्यापारी की आत्मसझ, दीर्घ शत्रु का कटक युक्तिपूर्वक दूर करके अपना सर ऊँचा रखनेकी जातिगत विशेषता. इस महाकाव्य में कहीं अभिधा से कहीं व्यंजना से दिखाई है ये बात सराहनीय है।
कवि दीक्षाग्रहण किये सूरि महाराज थे । अतः यह सर्जन, कोई आर्थिक लाभ लेने के लिये नहीं किन्तु निःस्वार्थभाव से कवि ने किया है । आपको जगडूश्रेष्ठी की गुणराशि ने आकर्षित किया होगा । तथा कवित्वशक्ति होने के कारण आपने इस महाकाव्य लिखा होगा । जैन धर्मप्रसा भी इस महाकाव्य का उद्देश नहीं लगता । जैन तत्त्वज्ञान का उपदेश भी इस महाकाव्य द्वारा अपेक्षित नहीं है। इस साहित्य कृति में-महाकाव्य में एक महान परोपकारी दानवीर श्रेष्ठी का चरित्र सभी धर्मों के लोगों के सामने प्रस्तुत करने की कवि की मनीषा दिखाई देती है। जगड़ की सर्वानन्दने की हुई यह प्रशसा हृदय की गहराई से है यह कहकर श्लोक देकर मैं विराम करता हूँ। श्रीश्रीमालकुलोदयक्षितिधरालङ्कारतिग्मद्युतिः प्रस्फुर्जत् कलिकालकालियमद्प्रध्वंसदामोदरः । रोहः कन्दरवर्तिकीर्तिनिकरः सद्धर्मवल्ली दृढत्वक्रसारो जगडूश्चिरं विजयतां सर्वप्रजापोषणः ॥
पादटीप । १ श्रीजगडूचरित-सपादक मगनलाल दलपतराम खख्खर, प्रकाशक 'मेसर्स एन एम, नी कपनी, मुबई, मुद्रक -
गोवर्धन मुद्रणालय, मुबई (१८९६ A. D) उपोद्घात में छ कथाएँ दी गई है (पृष्ठ ५ से १) २ वहीं उपोद्घात पृ. ४ ३ "जैन साहित्यनो इतिहास" (गुज.) मोहनलाल दलीचद देसाई । १९३३ पृ. ४०१ ४ वहीं पृ. ४०१ ५ वहीं पृ. ४०२ पर 'वसत' सामयिक से उद्धृत ६ कवि सर्वानन्दसूरिकृत 'श्रीजगडूचरित' सर्ग-१ श्लोक-४ ७ "इति आचार्य धनप्रभ गुरुचरणराजीव चंचरीकशिष्य श्री सवाणन्दसूरि विरचित श्रीजगडूचरित महाकाव्ये वीयहुप्रभृति
पूर्व पुरुषव्यावर्णनो नाम प्रथम. सर्गः । ८ श्रीजगडूचरित II-I ९ वहीं 11-12,
II-22 सुपात्रदत्तोज्ज्वलवित्तराशिविमुक्तदोषः कृतधर्मपोषः । जनः समग्रोऽपि च यत्र रेजे सौजन्यधन्य. कलितोरुकीर्ति ॥
वहीं II-27 १२ स्तम्भेनेव गृह नागाधीशेनेव महीतलम् ।
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